अन्तःपुर का मेला



1- ये अन्तःपुर का मेला है इसमे रहता एक अकेला है 

रच रच के खेल रचता उसका ही सब मेला है 

कभी बुढ्ढा बन जाता कभी बच्चे जैसे जिद कर जाता 

हाथ धरे हथोडी पीटे क्षणभर फुर्सत इसको न सुहता 

2- इस अकेले के खातिर होता कितना झमेला है 

लगते है यहा पर जमघट सबका यह द्वैतो का डेरा है 

गाल बजाये कोई औरो का मुह फूल जाये 

सब जनता यह अन्तःपुर वासी यहा न तेरा न मेरा  है 

3- लैउर का राजा है पुरे साज समाज को चलता है 

मंत्री सेनापतियो के सहारे अपना खेल दिखता है 

खेलने से इसका जी न भरता

 तितली पतंगे की भाति ये हमेशा जीना चाहता है 

4-साज समाज को छोड़े या न छोड़े इस रूप का पीछा न छोड़े 

अपने त इठलाये व्यर्थ का करतब औरो से कराये 

अपने सुख की खातिर नाना बहुधा प्रयास करे 

इसी के छोटे बड़े हरकतों के कारन यह काया हमेशा ठगा करे 

5- यह जान ले तू अन्तःपुर वासी अधोगति को होना है 

तेरे इसी मनमानी के चक्कर में एक दिन धरा में सोना है 

यह जान ले तू डरकर जीने वाले कही न कही  पार हो जाते है 

और तनकर खड़े रहने वाले अपनी पीठ ही खाते है 

6- रजा है ये अन्तःपुर का कभी न परिचय देता डर का 

ले डूबेगा यह कस्ती एक दिन आसार नहीं है उबरन का 

जब ये हाल घर के मालिक का है बूरा क्यों न होगा मानुष का 

प्रतिनिधि जब करता सही क्यों होती दुर्गति इस नर का 


मास्टर मुकेश 



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