यात्रा



     हमारे जैसे लोगो की मूलतः एक विचित्र समस्या होती है वह यह है क्या किया जाय क्यूकि ऐसा कुछ भी नहीं जो किसी ने पहले से न किया हो सच ये भी है की जिन्होंने प्रयास किया वे सब के सब सफल भी हुये | संसार के सारे व्यक्तियों की अगर बात किया जाय तो यही मालूम चलता है की जो उन्नत थे उनकी यही अभिलाषा रही की हमारी तरह सब हो जाये और उसके लिये उन्होंने जो प्रयास किया वो अतिसय करुणामयी रही है फिर भी मुझे लगता है उन्हें संतोष नहीं  हुआ होगा |

      उनके लाख प्रयास के बावजूद लोग न तो उनको समझ पाये न ही उनके कही हुयी बातो या इसारो को समझ पाये और जो समझ पाये उनकी थाह किसी ने नहीं पाया | पूरे संसार में व्यक्तियों की परिभाषा भिन्न भिन्न दी गयी है क्योकि  व्यक्ति से ही उसकी खुद की जिन्दगी जुडी होती है हर व्यक्ति की अपनी अपनी विचार है | जब विचार लोगो के भिन्न भिन्न होते है तब लोगो के जीवन की परिभाषा एक कैसे होगी | मेरे विचार में इतनी विविधता के बाद भी लोग दो प्रकार के है एक वो जो जिन्दगी को  जीते है एक वो जो जिंदगी को ढोते है | 

    आजकल जिंदगी जीने वालो की संख्या कम या ना के बराबर है और जिन्दगी को ढ़ोने वालो से सारी कायनात भरी पड़ी है जिन्दगी जीने वालो को ढूढना बेहद मुश्किल है फिर भी होते है वो बटेर की भांति | जो बिल्कुल छुप कर होते है जैसे खाली स्थान मेरे दृष्टिकोण में वो सही है सच में वो वर्तमान में जीवन को जीते है | उनकी धारणा भी बड़ी भिन्न एवं तीखी होती है वो साफ़ कहते है की लाखो वर्ष बेहोशी में जीने से अच्छा है एक दिन होश में जिया जाय | होश में होते ही व्यक्ति के द्वारा किया गया कार्य अर्थ में होता है अन्यथा सारे कृत कार्य अर्थहीन होता है |

      एक दुसरे जो जिंदगी को ढोते है उनके लिये करोड़ वर्ष भी कम है और अन्तोगत्वा उनसे अगर पूछा भी जाय की अभी और जीने की इच्छा है ,तो उत्तर मिलेगा की अभी मैंने देखा ही क्या | यही होता है फर्क जीवन को जीने वालो में और जीवन को ढ़ोने वालो में यही जीवन के दो रास्ते है जो एक भीतर की तरफ ले जाती है ,वास्तव में यही जीना सिखाती है और एक बहार के तरफ ले जाती है बहार वाले रास्ते में कुछ सीखने सिखाने की जरुरत नहीं होता है ये स्वतः हो जाता है क्योकि इसका ही जन्मो जन्मो से अभ्यास होता है और बड़े मजे की बात ये है की ये दोनों ही रास्ते हमारी चेतना से जुड़े होते है जिसका अनुभव हमारे चेतना  को सतंत होता है | 

      तुम समझ रहे हो मै अध्यात्म की चर्चा कर रहा हूँ ये सच है हमारे अध्यात्म की दुनिया का जो कुछ पूजी है या धरोहर है वेद पुराण उपनिषद् गीता रामायण आदि अन्य ग्रन्थ जिससे भी जीवन को जीने में मदत मिलती है वे सभी धर्म ग्रंथो की एक ही धारणा है व्यक्ति को बस जीना आ जाय इससे इतर अगर कुछ है तो वह अपनाने योग्य नहीं है | हाँ आँज एक गम्भीर समस्या है लोग पीर पैगम्बरों को भी बाट दे रहे है सभी धर्मो के लोग आपस में मनुष्य होते हुये भी लड रहे और धार्मिक ग्रंथो का जीवन में सदुपयोग नहीं कर पा रहे है  |

   मैंने खुद के जीवन में अनुभव किया रामायण (मानस ) व्  गीता व्यक्ति को वास्तव में जीना और  मरना सिखती है मै स्वयं ये नहीं कहूगा की लोगो के लिये क्या सही है क्या गलत है लेकिन मै ये कहूगा की चाहे  वह रामचरित मानस हो या गीता हो बाइबल हो कुरान हो  या कोई भी धर्मग्रन्थ हो , हर व्यक्ति को केवल धर्म ग्रन्थ समझ कर उसका रसपान नही करना चाहिये, बल्कि उसका उपयोग खुद के जीवन में दवा के भातिं करना चाहिये  | उसके बाद हर धर्म ग्रंथो का जो मूल उद्देश्य होगा वह सार्थक होगा क्योकि अध्यात्म की दुनियां कही अलग से नहीं है यही इसी धरती पर लोग जिये और जीकर भी दिखाये और जो उनका अनुभव था वह हमारे लिये या आने वालो के लिये छोड़ दिया | 

       चाहे वह कृष्ण रहे हो राम हो बुध्द हो की महावीर या फिर ईसा मसीह हो की मोहम्मद | सब के सब इसी धरती पर अपने जीवन को जिया और जीकर दिखाया जैसे जीना चाहिये और इन्ही की बाते कही न कही संकलित भी है जो एक खोजी के लिये सुगमता सरलता प्रदान करता है | वेदों में या बहुत सारे ग्रंथो में अध्यात्म की भिन्न भिन्न एवं बहुत सी परिभाषाये विद्वानों द्वारा की गयी है शायद आगे भी हो और होना भी चाहिये क्योकि यह विषय ही ऐसा है और एक सच यह भी है कि जो बात कहा न जा सके उस बात को कहने में क्या होगा वह बात झूठी ही होगी कभी सच नहीं हो सकती | 

      मेरे विचार  में अध्यात्म का अर्थ है आत्मा का अध्ययन , पूरे संसार में यही बात अनूठी है किसी भी आश्चर्य से कम नहीं है जो विषय अन्नोंन है उसका अध्ययन उसकी खोज एक व्यक्ति करता है उससे बड़ी समस्या यह है की व्यक्ति खोज तो करता है सही परन्तु उसे भी पा लेता है यह विश्व की एक मात्र अनूठी एवं इकलौती आश्चर्यजनक घटना है जो सच में बड़ा ही अजीब है यू समझ लीजिये गूंगे को कोई मिठाई मिल जाये और वह खा भी ले और किसी तरह वो बता दे की ये वस्तु मीठा है ये अजीब ही नहीं बहुत ही अजीब होगा |

   आत्मबोध को बहुत सारे लोग उपलब्ध हुये और जीवन को ढोये नहीं बल्कि जिये जैसे जिया जाता है भीतर की यात्रा का मंजिल आत्मबोध ही होता है | इस स्तिथि का बहुत सारे संकेत है (नाम है ) इस नाम से बहुत सारा उलझन हो जाता है और इसकी व्यख्या बहुत हुयी पर एक हद तक सम्भव हुआ | अब स्वास्थ का क्या परिभाषा होगा और जिस भी व्याख्या में बल दिया गया सच में चूक भी वही हुआ | ये बाते सच में आज भी उतनी ही विचित्र है जीतनी की कल थी और मेरे विचार में ये सही भी है क्योकि सत्य ऐसा ही होता है एक स्थायी एक रस नित्य नूतन आँज भी अन्तः यात्रा को प्राप्त व्यक्ति वही होता है जहाँ कल या आदि काल में व्यक्ति होता था हाँ थोडा फर्क होता है वो व्यक्ति के आचारो का विचारो का भाषा का काल क्षेप का उनके पध्दति का |

     ये इसलिए होता है की  व्यक्ति के स्वभाव एक जैसे नहीं होते है | अन्तःयात्रा जरुरी होता है ये थोडा जटिल समस्या है अब ये व्यक्ति के ऊपर निर्भर करता है की उसे खुद की यात्रा करनी  है की नहीं ,और सच ये भी है की खुद को जाने बिना जीवन अपना न होगा पराया ही होगा जीवन में आनन्द न होगा | मै कौन हूँ ये सबके भीतर से उपजता है या खुद से सवाल होता है की आखिर मै कौन हूँ | बहुत सारे दृश्य या विचार घटना होते है जिससे स्पष्ट होता है की मै वर्तमान में जो भी हूँ मुकेश ,राम श्याम जो भी हूँ मै इससे इतर हूँ ,मै कोई मुकेश राम श्याम हो ही नहीं सकता क्षण भर के लिये ही सही लेकिन ऐसा संसार के सभी मनुष्यों के साथ होता है फिर भी हम न मानने को तैयार होते है न हीं  सच जानने को तैयार होते है |

   हम आये दिन लोगो को मरते देखते है थोडा तकलीफ होता है B.P. थोड़ा बढ़ जाता है थोडा ज्यादे सोच लिया तब रात को अन्दर से डर लगता है | उस मरे हुये व्यक्ति की छवि दिमाक में होता है अन्तरद्वंद होता है खुद से लड़ना होता है सामने कोई नहीं फिर भी माथे से पसीना छूट रहाँ होता है शारीर गर्म है आँखे लाल भय से भिची हुयी खुद तुम्हारे सिवा कोई नहीं फिर भी सारे घटना ऐसी है जैसे सामने मनो तक्षक नाग हो जिसके फुकार मारने मात्र से अब मरे की तब मरे यह द्वंद हमें इतना बेबस व् लाचर कर देता है की इस द्वंद से बचने के लिये हम खुद न जाने क्या क्या उपाय करते है जैसे टी० बी० चालू कर लिया या किसी और से फोन से बात कर लिया |

       ये न हुआ तो हनुमान चलीसा या आदि और जो धार्मिक नहीं है वो अपने हिसाब जो खुद को जो भा जाये और नहीं सुझा तो वीडियो गेम खेल लिया | आज कल बच्चे बूढ़े युवा सभी वीडियो गेम खेलते है यानि तमाम कोशिश कर लेते है जब तक उस मरे हुये व्यक्ति की छवि खुद के चित्त और मन से समाप्त न हो जाये या मै भी इस तरह से मर जाऊगा यह विचार विसर न जाये | कुछ इससे ज्यादा साहसी होते है तो वो इस घटना को अंजाम तक पंहुचा देते है और स्वयं निष्कर्ष निकाल लेते है की मै थोड़े मरुगा जबकि उन्हें भी पता होता है की मै खुद को सिर्फ तसल्ली भर दे रहाँ हूँ संसार का हर व्यक्ति जानता है ,उस मोड़ को ,रास्ते को ,गल्ली को जो रास्ता मरघट तक ले जाता है | आँज जो मै दूसरो को लेकर आया या जाते देखा एक दिन इसी रास्ते से उसे भी खुद आना है मरघट तक , ये सभी जानते है लेकिन इसे मानता कौन ,इसे व्यवहार में जीता कौन बस एक धरणा है | जेहन में इसी को सच भी मानते है की मै नहीं मरुगा |

   अपने अपने धरातल के अनुशार लोग इस बीमारी का इलाज ढूढ़ ही लेते है | किसी को कुछ सूझता है तो किसी को कुछ ,तो कोई गीता में पढ़ा है आत्मा नहीं मरता है ,इसी को सच मानकर जी रहाँ है | इस तरह से लोग अपना काम निकाल लेते है लेकिन समस्या ये है की खुद के परिजन ,बीबी या बच्चे मरे तो गीता भी काम नहीं आता और लोग विषाद से ग्रसित हो जाते है | हाय रे मनुष्य रोज देखता है की शरीर मर रहाँ है मरणावस्था ही है | लोग भी रोज मर रहे है फिर भी लोग यह मानने को तैयार नही की मै भी एक दिन मर जाऊगा |

       ये विचार सारे मनुष्य के भीतर होता है और ये विचार व्यक्ति के दिमाग की उपज नहीं होता ये होती है चेतना की जो अपने होने का ऐहसास करता है और ये होना भी चाहिये क्योकि ये सत्य है मै नहीं मरता | सत्य ये भी है की चेतना अपने होने का ऐहसास हमेशा करता है  ये ध्यान का विषय है क्योकि चेतना खुद में आत्मसात है | कभी -कभी तुन रात में सोते हो सुबह होती है तुम स्वयं किसी और से कहते हो रात बड़ी अच्छी नींद आयी और किसी दिन कहते हो रात सों न सका ये दोनों बाते बहुत बड़ी है ये दो घटनाये हुयी  ये सत्य है लेकिन तुम्हे इसके अतिरिक्त कुछ याद न रहा |

      जिस सुबह उठने पर अपने को तरो ताज़ा महसूस करते हो कहते हो बड़ी अच्छी नींद आयी जिस दिन सुबह अपने को तरो ताज़ा नहीं महसूस करते हो या थोडा थके रहते हो उस दिन तुम कहते हो नींद ठीक से नहीं आयी तुम दोनों घटनाओं में आठ घण्टे ही सोये और दोनों घटनाओं में सोने से ज्यादा कुछ भी याद नहीं भले ही पड़ोस में रात को आग लगी थी ,लेकिन तुम्हे कुछ भी याद नहीं फिर भी तुम सोने की दावा करते हो कभी भी ये नहीं सोचा की जब खुद सोये थे तो कौन जग रहां था वो जो भी था वह चेतना ही था क्योकि चेतना न होता तो मै सोया था ( अर्थात शारीर सोया था न की चेतना ) इसका ऐहसास भी न होता | 

    चेतना ही मूल है पूरे शारीर को प्राण उर्जा चेतना  से ही मिलता  है  इसका खुद को बोध भी होता है ,फिर भी अपने विवेक को दबाकर खुद को बुध्दिमान साबित कर लेते है | हमने देखा है अन्तर्द्वन्द के स्थिति में कभी -कभी ऐसा होता है की किसी कार्य को लेकर करे की न करे अर्थात खुद के भीतर से यह होता है कि यह कार्य करे तो वही एक तरफ होता है की इस कार्य को न करे या वही मन कहता है की पाप पुण्य कुछ नहीं होता दुनिया में सब कर रहे है तो उनके लिये पाप नहीं होता हमारे लिये पाप होगा |

        ये दो बाते एक ही व्यक्ति के भीतर होता है और दोनों में से एक बात को अपना लिया जाता है दुसरे को छोड  दिया जाता है | ये दो बाते दो पोल की तरह होता है ,इसका सबको बोध होता है लेकिन इन बातो का कोई और साक्षी भी होता है ये बाते थोड़ी बामुस्कील समझ आये ,लेकिन ऐसा ही होता है | जब भी भीतर घटनाओ का दो पोल बनता है या दो बाते होती है तो ये दोनों बाते जिसके सामने होता या वह जो साक्षी होता है ,गवाह होता है वह व्यक्ति खुद होता  है वह शुद्ध चेतना होता है |

   आज मै भी वही बात कहूगां जो सबने कहाँ है बाह्य ( बाहर ) यात्रा कभी भी पूरा नहीं होता और अन्तःयात्रा कभी खाली ( खोखला ) नहीं होता है | अन्तःयात्रा में या इस रास्ते में थोडा चकाचौध नहीं होता है ऐसा सब मानते है चूकी अंजान है ,हाँ ये भी सच है बह्ययात्रा के भाति नहीं है समस्या ये भी है की लोग बहार के रास्ते से उब जाते है ,चलते चलते थक जाते है क्यूकि इसमें आनन्द का प्रतिवर्धन नहीं होता है और मंजिल खुद का अगर आनन्द है तो व्यक्ति दुःख विषाद में कब तक रहेगा और इधर से ऊबे की अन्तःयात्रा के किसी जानकर पथिक के पास पहुच कर ही व्यक्ति रुकता है न चाहते हुये भी ,क्योकि हर मनुष्य का स्वभाव ही आनन्द में जीना है और चेतना को स्थित व्यक्ति ही आनन्द में जीता है | 

     आज की स्थिति बड़ी ही दयनीय है बड़ा ही अजीब है बहुत लोग दुकान खोल के बैठे है न जाने क्यू ,पता नहीं कितना आनन्द दुकान खोलने में मिलता है | सच पूछो तो वो दूसरो को नहीं खुद को धोखा देते है ,दूसरे का कोई क्या बिगाड़ सकता है | ये भी सच नहीं की आज चेतना को प्राप्त या आत्मबोध में स्थित व्यक्ति नहीं है वो है ,आत्मा है चेतना है जितना सच है उतना ही सच है की आज भी आत्मबोध में स्थित व्यक्ति है हाँ थोडा कम है | अब कम हो की ज्यादा किसी को क्या प्रयोजन ये रास्ता चकाचौधहीन होता है, थोडा कठिन, खतरों का डर और  दूभर भी होता  है | 

      इस रास्ते में खतरा भी है तो क्या फर्क पड़ता आत्मबोध वाले व्यक्ति रहे की न रहे ,कम रहे या ज्यादा ,पर उसे फर्क पड़ता है ,जो सच में इस मार्ग पर चलना चाहता है जो खुद चेतना को उपलब्ध होना चाहता है जो सच में कही न कही इस दुनिया से (व्यवहार की दुनियां ) थक जाता है और वह व्यवहार में भले तुमको लगे वह बेहतर है , जैसे की मोटा तगड़ा ,अच्छा खाता पीता है ,पढ़ता है कुछ काम भी करता है पर सच इससे इतर होता है | वह रात को न जाने क्यू रोता है कारण कुछ भी न होता बस एक बेबशी होता एक प्रतीक्षा होता आँसू थमाते नहीं एक घबराहट होता ,एक खालीपन सब कुछ होने के बाद भी उसके भीतर कुछ न कुछ कचोटता रहता की मै कौन हूँ |

     इस बात की अभिलाषा, इस एक बात की अभीप्सा होती है, वह गहरे में सोचता मै आज हूँ कुछ समय बाद न रहूगा, आगे कुछ समय पहले नहीं था कल इस शरीर को या अगले क्षण इस शरीर को विदाई देने की बारी होगी क्या लोग जीने मरने के लिये पैदा होते है या एक कफन के लिये पैदा होते है अगर ये सब इसके लिये होता है तो बड़ी अजीब है दुनिया और दुनिया की दस्तूर |

        एक साधक या श्रेष्ट साधक की यात्रा शायद यही से शुरू होता है और यही से शुरुआत भी होना चाहिये कि मै कौन हूँ ,मै अभी जो हूँ यह पक्का भरोषा हो जाये कि ये मै नहीं हूँ ,इससे इतर हूँ और यह अभीप्सा इतनी प्रबल हो जाये की ये चेतना तक पहुच जाये इसके बाद यही जीवन का फितूर बन जाये ,यही से व्यक्ति की अन्तःयात्रा प्रारम्भ हो जाती है | आज ये रास्ते जितना कठिन लगता है ,उतना कठिन है नहीं क्यूकि हमें मार्ग नहीं बनना ,सारे के सारे मार्ग बने बनाये है थोडा फर्क है बस सोच का क्योकि हम इस रास्ते के पहले पथिक न होगे हमसे पहले न जाने कितने इस मार्ग से गुजर गये |

"ये मुश्किलें न होते तो ये इरादे भी न होते 

जो साथ लेकर चलते हो ये कायदे भी न होते 

तू उठ और निकल जा जिधर तुम्हे जाना हो 

क्योकि इस दरिया को पार न करना होता तो 

किसी ने ये काठ के नौके गढ़ाये न होते  |"

   ये बाते महज कहने की बाते नहीं है ये वास्तव में शतप्रतिशत सत्य बात है इसी दुनियां में सब जीते है फिर भी सबके अपने विचार होते है सबके अपने नजरियाँ होते है | कोई फूल तोडकर आनन्द की अनुभूति लेता है, कोई उसे सींच कर आनन्द लेता है | कोई एक उसे देखकर बिना कुछ बोले  मस्त रहता ("बिना बोले का अर्थ है -देखने वाला बोल नहीं पता है ") है | तुम देखना तब तुम्हे भी पता चलेगा की सारी दुनिया में लोगो के खुद के अपने -अपने रस है और गौर करोगे तो तुम्हे पता चलेगा एक आश्चर्य जनक घटना, कि  वास्तव में ये सारी कायनात चलायमान है |

       सब भूत प्राणी की सतत गति हो रही है सब बढ़ रहे है अपने मकाम की तरफ | पत्थर की अपनी यात्रा है रेत तक,नदियों की मंजिल सागर है, तो सागर की भी एक निश्चित मंजिल है | रेत पत्थर की तरफ बढ़ता है, आज जो पौधा है वह कल वृक्ष होगा और वृक्ष की यात्रा वृक्ष तक निश्चित नहीं है उसमे फल फूल लगते है ,उसमे बीज का निर्माण होता है सारे एक लयबध्दता में यात्रा हो रहा है तो हमें भी यात्रा करना होगा ,और सच ये है कि हम जाने अंजाने में यात्रा कर रहे है बस फर्क है तो होश की | एक व्यक्ति अपनी यात्रा होश में करता है एक व्यक्ति अपनी यात्रा बेहोशी में करता है ,लेकिन दोनों ही यात्रा करते है |

        खुद की झलक सबको मिलती है ,कौधता है सबको लेकिन इसी में एक निकल पड़ता है एक अपने आदतों और वासनाओ को छोड़ नहीं पाता ,फिर वह डरता है और पुरे जीवन भर अपने डर पर जीत नहीं पा पाता है ,अन्तोगत्वा जीने की इच्छा समेटे हुये इस दुनिया से अपने शारीर को त्याग देता है | अब शरीर भला कब तक साथ दे ,ये बात नहीं की खुद को जानने वाले का शरीर जैसा होता है ,जो सततं नाभिकीय बिखंडन के द्वारा नया होगा ,पर इतना फर्क होता है| 

       जो खुद को जानते है ,उनकी चेतना यूरेनियम की भांति होता है नित्य नया नूतन ,युरेनियम की बात आने से तुम ज्यादा मत सोचना क्योकि इस कायनात में ऐसी कोई चीज नहीं जो  हमेशा बना रहे अर्थात हर वस्तु की आयु है लेकिन चेतना को किसी के होने या ना होने से कुछ फर्क नहीं पड़ता अर्थात ये सदा सदा रहता है | तुम इस कायनात को देखो गौर से तब तुम्हे पता चलेगा की इस कायनात में सब कुछ पाया जा सकता है ,बस जितनी बड़ी वासना हो उससे बड़ा ही संकल्प हो फिर सब कुछ सम्भव है ( वासना =इच्छा ) 

  अब सबके घर की खबर हो खुद के घर को छोड़ कर तो सबके घर को जानकर कोई भी क्या करेगा | माना दुनिया के नजरो में तुम सबके घरो को जानने वाले जानकार कहे जाओगे लेकिन जब भी खुद की बारी आयेगी, तो क्या आत्मग्लानि से  भर नहीं जाओगे | सारी दुनियां के घरो में दीपक जलाने से अपने घर में प्रकाश सम्भव नहीं होगा | क्या फर्क पड़ता है सिकन्दर पूरी दुनियां जीत लिया या तुम जीत लो फतह कर लो वह जीत झूठा ही होगा क्योकि असली जीत खुद पर की जाती है | जीवन का सार्थक फतह खुद पर कीया जाता है ,अन्यथा सब व्यर्थ है कभी भी तुम ये मत समझना की लोग जग जीतने वालो को याद करते है |

        ये झूठ है क्योकि इस दुनिया में इतनी फुर्सत कहाँ की वो किसी को याद कर सके ,जब खुद सुबह का किया हुआ संकल्प किसी को याद नहीं रहता तो सोचो लोग तुम्हे क्या याद करेगे | मेरे विचार से ये नहीं है की सब कुछ गलत है जो किया जा रहा है वो गलत है या तुम ऐसा मत करो वैसा मत करो ,तुम्हारी मर्जी जो तुम्हे सूझे वो करो ,लेकिन किसी पड़ाव पर जब कभी सवाल हो की मै कौन हूँ तब एक जवाब हो खुद के पास या मै स्वयं को जानू की मै क्या हूँ कौन हूँ |  

       आँज वर्तमान में एक समस्या है वो भी गम्भीर है जैसा सीखने वाला वैसा ही सिखाने वाला | और इससे भी बड़ी एक समस्या  वो ये है की लोग सिखाने वाले  या गुरुओ पर चार से छः घंटे बहस जरुर करते है ,पहले तर्को के आधार पर सच्चे गुरु की पुष्टि करते है और अपने मन के पैमाने पर जो आ जाये उसे अपना गुरु बनाते है | जो किसी तरह एक गुरु कर लिया तो वह दूसरे के गुरुओ को नीचा दिखता है ,उसके स्वयं के बनाये हुये गुरु दुनियां के सबसे सर्वशक्तिशाली गुरु है | तीन -चार घंटे तक मैंने भी अपने -अपने गुरुओ की वाह- वाही करते हुये व्यक्तियो को देखा है ,इससे अगर बात न बने तो लोग आपस में विवाद गाली गलौज तक कर लेते है |

        नौबत यहाँ तक आ जाती है लोग एक दूसरे से व्यवहार में बोलना तक भी बंद कर देते है | मुझे तो देख कर हसी आती है इस बात पर कि लोग सच्चे गुरुओ की चर्चा करते है और उनकी वाह -वाही भी करते है लेकिन कोई एक भी व्यक्ति सच्चा चेला बनने को तैयार नहीं होता है | ये सच है मनुष्य की प्रकृति ही ऐसी है की मै कैसा हूँ इससे प्रयोजन नहीं होता है ,लेकिन लोग कैसे है इससे प्रयोजन जरुर होता है ,लोग ये कभी नहीं सोचते कि मै कैसा हूँ ,किसी के साथ ढल जाऊगा या किसी को व्यवहार में पसंद आऊगा या नहीं ,यह कभी भी कोई सपने में विचार नहीं करता है | उसे दूसरे के बारे में जानने की बड़ी ही उत्कंठा रहती है या कह लिजिये की व्यक्ति का यही गोल (मुकाम ) है की सबको मै कितना जनता हूँ |

   जैसे ये सच है की इस दुनियां को कोई  बैलेंस किया है वैसे ही ये भी सच है की सच्चे साधक ( चेला ) को सच्चे गुरु ( महापुरुष या सतगुरु ) मिल ही जाते है यही सत्य है और ऐसा होना ही चाहिए और ये कोई आश्चर्य की बात नहीं है ये तुम्हारे साथ भी होता है ,लेकिन तुम्हे याद नहीं होता | तुम याद करो ,  जब तुम किसी काम को करते हो ,वह काम तुम्हे नहीं आता और तुम उस काम को करने के लिये सतत प्रयासशील हो लेकिन बार -बार असफल हो रहे हो या वह काम सही से नहीं होता , तो सामने से एक कोई भी गुजरते वाले व्यक्ति के द्वारा वह उक्त कार्य बता दिया जाता है |

      तुमने कभी सोचा यह कार्य उक्त व्यक्ति ने क्यू बताया,जबकि वह अंजान था न ही दूर तक कोई भी उस  व्यक्ति से तुम्हारी कोई नातेदारी है फिर भी वह व्यक्ति तुम्हे सिखा  देता है ,या इसलिए की तुम मनुष्य हो और मनुष्यों को सिखाने पढ़ाने का ठेका कोई दूसरा मनुष्य ले रखा हो ,नहीं ऐसी कोई बात नहीं | वह व्यक्ति अगर तुम्हे  कुछ बताता है तो सिर्फ व् सिर्फ तुम्हारे लगन को देखकर ,तुम्हारे परिश्रम को देखकर ,तुम्हारे फितूर को देखकर ये घटनाये तुम्हारे साथ अक्सर घटता है तो ये एक घटना तुम्हारे साथ क्यू न होगा कि एक सच्चा  गुरु न मिले |

      पहले तुम सच्चे साधक बनो उसके बाद तुम देखना तुम्हे इतने सतगुरु नजर आयेगे कि तुम उनका नाम भी नहीं गिन पाओगे | ये रास्ते कैसी है इसका पता न होने के कारण थोडा मुश्किल होता है लेकिन नामुमकिन नहीं | बहुत सारे लोग हुये जो इस पथ पर बिना सिखाने वाले के पहुच गये लेकिन तुम ये मत सोचना की वो बहुत महान थे ,अगर मै सही हूँ तो ये सत्य है की अगर तुम आँज उनसे पूछोगे तो यही पाओगे की पा तो गये लक्ष्य लेकिन भाई बड़ा देर हुआ | आज मैंने देखा है समाज में सीखना तो चाहते बहुत सारे लोग ,लेकिन एक बिडम्बना है की लोग उन महापुरुषों से अपेक्षित है जो आँज शारीरधारी नहीं है |

       ऐसी बात नहीं है की उनसे नहीं सीखा जा सकता ,सीखा जा सकता है लेकिन तुम समझ पाओ , उनको ये आसान नहीं होगा अर्थात जैसे बिना ड्राइवर के एक गाडी सीखना , अब सीखा भी जा सकता है और मुआ भी जा सकता है | हाँ इस मामले में कोई गारंटी नहीं है ये मेरा अनुभव है ,मेरे विचार से सच में अगर ड्राइवरी सीखना हो तो किसी जीते जागते खाते पीते व्यक्ति से सीखना क्योकि ऐसे व्यक्ति से सीखने में सुविधा भी है  और सुरक्षा भी है यू समझो ये ग्रेस है और ये सबको मिलता है |

       यही अन्तःयात्रा की एक बोनस अंक है और व्यवहार के दुनिया में या बाह्ययात्रा में पूरे संसार में चाहे  जो हो न तो वह अपने आप को न ही तुमको ,  न सुविधा दे सकता न ही सुरक्षा | जो देगा वह झूठा ही देगा क्योकि बाह्य यात्रा में ऐसी कोई चीज है ही नहीं | हाँ अगर बाह्ययात्रा में अगर कुछ है मिलने को तो वह है विक्षिप्तता दुःख विषाद आदि अनेक बीमारियाँ | जो जीने तो देती नहीं साथ ही चैन से मरने भी नहीं देती और अन्तःयात्रा में ये गारंटी है की कुछ है तो सिर्फ व् सिर्फ आनन्द ,सतत आनन्द ,प्रेम  सुख और सूकून से जीना ,बिना विषाद के मरना | 

      एक असीम आनन्द एक ऐसा आलम्ब जिसके होने से तुम स्वयं किसी के होने से भी न होने से जी सकते हो और प्रेम पूर्वक मर भी सकते हो | अब सूकून से तुम कैसे मर सकते हो ये बात थोडा अटपटा ,थोड़ी बेहूदी भी ,क्योकि किसी मंच से ऐसी बाते कौन परोसे किसको क्या पड़ी है अब कौन अपनी भीड़ कम करे | अब ये भी कोई बात हुयी भला मरने की बात कैसी बेहूदीगी भरी बात है, जो सुनने में भी कान को अच्छा लगता नहीं ,ऐसी बात कौन करेगा | आँज भी मैंने देखा है सब बात तो ठीक दुसरे के मरने की बात भी लोग करते है लेकिन बात जब खुद की होती है तो लोग बात बदल देते है और बोल  ही देते है तुम्हे काम धंधा नहीं है क्या | 

   अब ये समस्या तो है जब व्यक्ति आनन्द से जी नहीं सकता तो ये कैसे सम्भव हो की व्यक्ति आनन्द से मर सकता है या जो जीते जी मुक्त नही हो सका वो मरने के बाद मुक्त कैसे होगा लेकिन लोगो की धरणा  है की मरने के बाद मुक्ति मिलती है और हमारे यहाँ  तो अतिविचित्र बाते है की जो काशी में जन्म लिया वह मुक्त ही है और शायद यही कारण है की काशी वाले कुछ ज्यादे निश्चिंत होते है | मैंने भी कही- कही मरने का प्रसंग सुना है कोई कहना ही शुरू ही किया की किसी ने तुरन्त चुप हो जाने को कह दिया ,ये भी कोई बात तुम्हे कोई और बात नहीं सूझता है |

       जब देखो  तब मरने वाली प्रसंग लेकर शुरू हो जाते हो ,ये बाते भले ही उस वक्त दबा दिया जाता हो | लेकिन क्या इससे कोई पीछा छुड़ा पाता है नहीं ,ये सबके भीतर गूजता रहता है ये सत्य है जिसे झूठलाया नहीं जा सकता | जिससे सबको गुजरना है ,इतना जानने के बाद भी लोग समझौता कर लेते है|   मैंने लगभग 60 या 65  वर्ष के एक महिला को देखा हो सकता है वो 70 या इससे ऊपर की हो मै वहां किसी कारणवश था | वहाँ पर उस महिला के द्वारा अपनी समस्या को किसी डॉक्टर से कहते सुना ,वो था की मुझे हुआ क्या है ,उत्तर था की आपको कुछ नहीं हुआ ,सब कुछ ठीक है |

        उस महिला ने जोर देकर फिर से कहाँ कि मुझे कुछ ऐसी दवा दीजिये जिससे मै ठीक हो जाऊ, तब डाक्टर बोले आप सोती है ठीक ठाक से ,तो उस महिला ने कहाँ- नीद कहाँ आती है रात को प्रकाश करके सोना पढ़ता है , नहीं तो घबराहट होती है तब डाक्टर ने कहाँ घबराहट क्यों होती है आप कुछ सोचती है ,तब उस महिला ने कहाँ नहीं कुछ सोचती नहीं हूँ ,फिर डाक्टर ने कहाँ तब क्यू आपको ऐसी घबराहट होती है ,तो किसी तरह उस महिला ने कहाँ हमारी पडोस की एक महिला है जिसको खाना पानी छोड़े 15 दिन हो गये सब उसकी मरने की प्रतीक्षा कर रहे है | मुझे डर लगता है ,मै भी न मर जाऊ ,डाक्टर साहब कुछ ऐसा दवा दीजिये की मै ठीक हो जाऊ | 

  ये घटना किसी एक महिला की नहीं है ,न ही किसी एक पुरुष का है ,वरन पूरे विश्व के मानव जाति का है | जहाँ भी खुद मरने की बात हुयी की सबकी नाड़ी सूख जाती है मुझे तो आश्चर्य इस बात पर होता है ,की डरते है ठीक है ,इस डर का इलाज भी है ,ऐसा नहीं इस समस्या का निदान नहीं है | हैरानी है तो बस इस बात की- की लोग न तो अपने डर का इलाज करते है न हीं डर -डर जीना चाहते है | 

     ये मनुष्य जाति की अनोखी समस्या है दरसल जीना तो अब तक आया नहीं तुमको ,गलती से कोई जिंदगी को जीने वाला व्यक्ति मिल भी गया तो तुम क्या करते हो ,उसे पत्थर मरते हो ,उसे पागल समझते हो ,सूली चढाते हो गाँव से भगाते हो , उसे अपमानित करते हो ,इससे अगर पेट न भरा तो जहर भी देते हो | ये तुम्हे जीना आ जाय इसके चक्कर में सारा दंश झेल लेता है ,फिर भी अगर पेट नहीं भरता है तुम्हारा, तो तुम वो सारा उपाय अपनाते हो जिससे ऐसे व्यक्ति से तुम्हारा पीछा छूटे ,क्योकि ये व्यक्ति तुम्हे  जगाने का जो प्रयास करता है | 

     पता नहीं तुम कब से सो रहे हो ,थोडा ख़राब नहीं तुम्हारा बस चले तो तुम तोप से ऐसे व्यक्तियो को उड़ा दो | इसके बावजूद तुमने कभी भी नोट नहीं किया की उसकी बाते तुम्हे भी न जाने क्यू ठीक लगते है वो इसलिये ठीक नहीं लगता की उनकी बाते सिर्फ अच्छी बाते है बल्कि वो इसलिए ठीक लगता है की ऐसा तुम्हारा स्वभाव है |

       खुदा न खास्ता तुम थोड़े जगे तो वह जगाने वाला अब न रहा ,वह भी कितना रहेगा हाड़ मांस का शारीर लेकर ,उसके जीते जी कभी भी प्रेम से उसकी बात भी नहीं सुनी ,अब मरने के बाद करोडो की प्रतिमा बनाओ फूल मालाये चढाओ ,मिठाई भी चढाओ ,दीप आदि लोग बड़े भाव से पंचमेवा तक चढाते है | लेकिन इससे क्या होगा क्योकि जो जिंदगी जीना जानता था वो ये भी जनता था कि -सीखने के लिये एक उस्ताद चाहिए और जब तक पूरी तरीके से सीख न लिया जाय चाहे | चाहे जितने उस्ताद चाहिये हो कर लेना और यात्रा करना रुकना मत ,मुझे भी पीछे छोड़ देना ,एक सच्चा गुरु ही ऐसा इशारा करता है और ख़ुशी ख़ुशी करते भी है ,जब तक उसको लगता है अपने सानिध्य में रखता है ,जब उसको लगता है की अब तुम मेरे बगैर चल सकते हो ,तो वो तुम्हे भी अपने पास से मुक्त कर देते है | 

     ये प्रेम अजीब है जो सिर्फ देखते बनता है प्रेम भय से नहीं हो सकता और प्रेम दोनों और से उपजता है और यही प्रेम दो को एक कर देता है | जहाँ दो का एकीकार हो जाता है जहाँ अन्त में कोई नहीं होगा और जो प्रेम भय से उपजेगा स्वार्थ से होगा ,उससे हालाकि समर्पण हो सकता है ,एक उच्च कोटि का भक्त भी बना जा सकता है लेकिन वह व्यक्ति अध्यात्मिक न होगा ,खुद का खोजी न होगा ,वह कौन है यह कभी भी जान न पायेगा | और यदि कुछ भी बनना हो तो पहले वह खुद को जान ले की वह कौन है , उसके बाद जो जी में आये बनना ,भक्त बने की प्रेमी या योगी ,चाहे जो बने उसमे सार्थकता होगी उसमे निर्भयता होगी | 

       और निर्भयता से ही शुद्ध परिष्कृत प्रेम उपजता अन्यथा वह जो भी होगा थोपा हुआ होगा , भय से ही व्यक्ति जीवन को ढोता है और तुम जितने निर्भय या निर्भार होगे तुम उतने बड़े धर्मिक होगे ,तुम जीवन को ढोयोगे नहीं  , बल्कि तुम सही मायनों में जीवन को जियोगे | सच ये भी है की सिखाने के  बदले  गुरुओ को कुछ मिलता भी नहीं और कोई उन्हें दे भी क्या सकता और कुछ दिया जा सकता है |

        तो वह है व्यक्ति का अहंकार व्यक्ति का भय डर जिसे गुरु बड़े सहज भाव से खां जाता है और तुमको निर्भय बनता है तुमको वृक्ष बनता है और बदले में वह तुमसे कुछ न मागता है और एक तुम्हारे माँ बाँप है जो तुम्हे पालते पोषते है हांलाकि वो भी तुमको सिंचते है लेकिन उनमे एक आस होती है की जब मै असहाय हो जाऊगा ,तो मेरा भी भरण पोषण करना और खुद के माँ बाप इस बात को तुमको दाबे के साथ कहते है और तुम मेरे हो, मेरे अधीन रहो ता उम्र ,ऐसा अधिकार भी जमाते है |

      लेकिन एक सतगुरु ऐसा कभी नहीं सोचता वह तुम्हे बीज से पौधा तक बनता है फिर भी तुम्हे वह  स्वयं कह देता है की तुम अब पूरे हुये ,अब जाओ ,ऐसी उद्दघोषणा सच्चे प्रेम से सच्चे प्रेमियों के द्वारा उपजता है | और ये सब अध्यात्म जगत में ही ऐसा हो सकता है व्यवहार जगत में नहीं ,व्यवहार जगत में तुम्हे बढ़ते देखकर हजारो करोडो के छाती फट जाती है लेकिन अन्तःयात्रा में तुम्हे बढ़ते देखकर एक सच्चा गुरु ही नहीं या केवल तुम्हारा गुरु नहीं  बल्कि जितने भी सच्चे गुरु होगे उनको लगता है जैसे वो एक बार खुद आँज फिर से बढ रहे है |

  मनुष्य जाति की एक समस्या तो है नहीं हजारो -हजरो समस्या है चाहत तो होश की है  , वह खुद को तो जानना चाहत है पर वह जो भी समेटा है वह खोना नहीं चाहता | अब एक साथ दो चीजे कदापि सम्भव नहीं,  प्रकाश तो चाहिये सूर्य का वो भी बंद कमरे के भीतर, ये कहाँ से होगा थोडा जतन तो करना होगा ,बहार तो निकलना होगा किसी भी तरह से तब प्रकाश तुमसे दूर न होगा | अब तुम जतन भी करते हो थोडा- थोडा अर्थात बूद- बूद याद रखना बूद - बूद से घड़ा भरता है कोई खेत या मैदान नहीं और खेत भरने के लिये बूद -बूद नहीं बाढ़ की आवश्यकता होती है |

       तुम मन भी बना लेते हो एक क्षण को ,लेकिन सोचते हो पहले ये काम कर ले ,अपने पैर पर खड़े हो जाये ,शादी कर ले उसके बाद बच्चे ,उनकी परवरिस यानि कुल मिला कर तुम्हारे जीवन में कुछ न कुछ  हमेशा काम होगा और पूरा का पूरा समय निकल भी गया | फिर बुढ़ापे में किसी दिन याद आया की अरे खुद को जाना नहीं ,अब प्रयास किया जाय तब तक की इस साल की होली व् दिवाली मना ले इस बार सपरिवार बड़े दिनों पर एकत्र हो रहे है इसके बाद देखते है |

       इसके बाद भी खुदा ने अगर सासों को कुछ मोहलत दी तो अब नया समस्या की शरीर अब साथ न देगा ,अब शरीर कितना साथ देगा और एक दिन तुम सदा के लिये सो जाते हो | जबकि ऐसी कोई बात नहीं की खुद का पता लगाकर तुम ये सब काम नहीं कर सकते हो ,मै कहूगा बड़े सफाई से व् ईमानदारी से कर सकते हो | अब अन्तःयात्रा में बहार से कोई प्रयोजन तो है नहीं और होना भी यही चाहिए  | घर के पता होने पर या खुद के घर होने पर ऐसा थोड़े है लोग बाहर नहीं घूमते बल्कि शान से घूमते है हाँ ऐसा करने के लिये थोडा जतन करना होगा ,तुम्हे संकल्पवान होना होगा |

       वृक्ष बनने के लिये सबसे बड़ी चुनौती होती है खुद टूटना , जब तक वह टूटता नही तब तक पौधा नहीं बनता तब तक वृक्ष नहीं बनता | अंत में वह वृक्ष खुद पर एक दिन हसता है की मै झूठा ही डर रहाँ था टूटने से | अगर मै किसी रोज टूटा न होता तो वृक्ष न बना होता , थोडा तुम्हे भी प्रयास करना होगा, अभ्यास करना होगा | 

       प्रकश या सत्य चाहिए तो तुम्हे सूर्य के सामने होना होगा ,इसके बाद भी अगर प्रकाश तुम्हे नहीं दिखाई देता तो ,इसमें न तो सूर्य कोई पक्षपात कर रहाँ है न हीं उसके प्रकाश से तुम्हारी दुश्मनी है क्योकि तुम बहार होकर भी सूर्य के सामने पीठ किये हुये हो जिस दिन भी चाहे जीवन के जिस अवस्था में तुम सूर्य की तरफ खड़ा होना ,तब तुम्हे पता चलेगा की न तो तुमसे सूर्य दूर था न हीं उसका प्रकाश | बीज का  डरना गलत नहीं होता वह अपनी जगह सही होता ,लेकिन जब वही बीज थोडा हिम्मत दिखता है तो वह विशाल वृक्ष बन ही जाता है |

       ये व्यवहार जीवन जो तुम जी रहे हो उस जीवन का अंतिम पड़ाव सुख है ,आनन्द है चाहे कोई  लम्पट हो , पण्डित, धूर्त, चंडाल,योगी,भोगी सबको सुख ही चाहिये | जहाँ व्यवहार जगत का अंतिम पड़ाव आनन्द होता है वही अन्तःयात्रा का शुभारम्भ ही आनन्द से होता है ,निर्भयता से होता है इस अन्तःयात्रा का अंतिम पड़ाव क्या होगा कुछ भी कहना गलत होगा मै ही क्या कोई भी नहीं कह पायेगा | 

      हाँ मै इतना अवश्य कह सकता हूँ की जिसका शुरुआत सुख शान्ति आनन्द निर्भयता से हो ,जिसका प्रथम सीढ़ी ही ऐसी हो उसकी सारी सीढीयाँ अतिसय प्रगाढ़ सुख ,आनन्द से ओतप्रोत होगी | ऐसा समझना की तुम जब बीमार होते हो उसके बाद जब तुम ठीक हो जाते हो ,तो उसके बाद यदि कोई तुमसे अगर पूछता है कि अब कैसा हो तो तुम जवाब देते हो ठीक हूँ | अब पहले से बेहतर लेकिन इसका अनुभव सिर्फ व् सिर्फ तुम जानते हो अब कैसा लग रहाँ है इसको शब्दों के माध्यम से बता पाना सम्भव नही और जो व्यक्ति आनन्द में होता है | 

     वह स्वयं  ही उस अनूभूति का द्रष्टा होता है और इसका जिक्र बहुतो ने किया भी है ,वो किये तो सही लेकिन लोग गलत समझ लिये और उसी को सच भी मान भी बैठे | दरसल वो लोग जो आनन्द या सुख मुक्ति निर्वाण कैवल्य आदि स्थितिओ का वर्णन शब्दों के द्वारा किये ये सच पूछा जाय तो मात्र एक इशारा है | अब तुम इतने भी समझदार नहीं की इन इशारो को समझ पाओ ,इसलिए जिस विधि जिस भाषा के द्वारा तुमको सहज समझ में आ जाय ,वैसे भाव वैसी स्थिति का वर्णन शब्दों के माध्यम से किया गया | 

      उनके इशारे ऐसे है जो समझ लिया वह समझो हो गया उन्ही की भांति ,ये उन महापुरुषों की करुणा ही थी ,जो दयार्थ होकर पीछे उनकी सन्तति ऐसी स्थितियों को प्राप्त करना चाहे कर सके | ऐसे ही जी सके इस भावना से उनका एक निश्चित माप तौल दे दिया गया है ,अर्थात आनन्द इतना लम्बा चौड़ा ऊचा व् भरी होता है फिर भी अभागे तो अभागे ही होते है इतना सब कुछ साफ़- साफ़ होने के बाद व्यक्ति इस कदर जी रहाँ है मानो खुद पर जाल पे जाल  फेके जा रहा है | 

     मनुष्य जाति को अभागा बोलना सर्वथा अनुचित है क्यूकि "ये धरती के  वासी अमृत के पुत्र है और सारी सामर्थ्य से लभालब है "| इस यात्रा के जो भी जानकार थे और जो आँज भी है ,वो सब एक जैसे ही है वो सब एक ही सत्य बताते है आँज भी कोई परिवर्तन नहीं हाँ विचार भिन्न होगे ,उनके व्यवहार का जीवन भिन्न होगा | लेकिन इसके बावजूद हर बात आज भी उतनी ही खरी है ,जितना की कल हुआ करती थी | 

     सत्य की परिभाषा  आनन्द का अनुभव एक जैसी है इसमें जरा सा कोई परिवर्तन नहीं |  एक काल में एक महापुरुष बुद्ध हुये ,जिनको मैंने देखा नहीं ,जिनको सिर्फ व् सिर्फ मैंने सुना है उनकी एक मूर्ती है ,जिसमे उनकी एक अगुली आकाश की तरफ है जिसमे नीचे मूर्ती में उन्ही की बात लिखा है " ये मूढ़ दुनियां मेरे इशारो को समझ नहीं पायेगी मेरे इसी अगुली पर फूल माला चढ़ायेगी " ये बात किसी साधारण आदमी के हो नहीं सकते ,ये बात जरुर किसी महापुरुष के द्वारा ही बोला जा सकता है और ये सच है| 

       जो इशारे में समझा जाता वह बोलते ही बिगड़ जाता ,जैसे आनन्द मौन में ही घटती है ,शांत सरोवर मे ही अपनी छाया या किसी की छाया साफ़ झलकती है स्पष्ट रूप में अन्तःयात्रा आनन्द की यात्रा है ,न तो बोल के बताया जा सकता है न ही किसी और को दिखाया जा सकता ,हाँ इसका भोगी यात्री खुद होता है | इस यात्रा पर भी निकलने के लिये सच पूछा जाय क्या चाहिये होता है , यह मेरे लिये भी बता पाना मुश्किल है ,क्योकि मैंने देखा है की संकल्प रोज सुबह बनते है सांझ को बिगड़ते है ,फिर किसी प्रकार सांझ को बन भी गयी तो क्या हुआ वह सुबह बिस्तर पर उठते -उठते टूट ही जाता है |

       इसके बावजूद अगर तुममें खुद को जानने की इच्छा हो  तब याद रखना कभी रुकना मत बस भगवान से यही प्रार्थना करना कि भगवान मै कौन हूँ ,मै जानना चाहता हूँ खुद को ,तुम देखना ये भाव जितने सघन होगे तुम उतने निर्भय होते जाओगे | एक दिन तुम्हे एक दिन सच्चा सतगुरु मिल जायेगा या अगर तुम उसके पास नहीं जा पाये तो ,वो तुम्हारे पास आ जायेगा ,क्योकि एक सच्चा सतगुरु भगवान का दूसरा रूप होता है | 

      अगर तुम सतत लगे रहे ,खुद को जानने के लिये तो तुम देखना ,तुम्हारी जीवन एक बार फिर नदी की धारा की भातिं चलायमान हो जायेगा | तुम खुद को थोडा आनन्दित पाओगे ,मेरे दृष्टिकोण में खुद से यात्रा करना कठिन होता है और इसमें धोखा भी हो जाता है इसका ये मतलब नहीं की तुम अकेले नहीं जा सकते ,लेकिन मुझे स्वयं अनुगामी बनने में आनन्द आता है ,और महापुरुषों के सानिध्य में रहना ठीक लगता है सारी उम्र मै उन्ही से पूछ -पूछ के चलू और चलता हूँ |  

      वैसे मेरे जीवन में बहुत सारे महापुरुषो का योगदान रहाँ ,जिनमे कुछ शारीर से आज भी मेरे साथ है और कुछ अशरीरी होने के बाद भी मुझे सम्भालने का कार्य करते है | एक बात तुमसे आँज मै कहता हूँ तुम जहाँ हो वही से अन्तःयात्रा कर सकते हो ,ये मेरे थोड़े से जीवन का अनुभव है बस कुछ बाते अपने जेहन उतार लो ,दृढ़संकल्प ,निष्ठा और अभ्यास | ये बाते एक साधक के लिये बेहद जरुरी होता है ,हालाकि निष्ठा शुरुआत में न होगा और इन सबके पुष्ट होते ही बाकी सारे स्वतः आ जाते है | 

      मेरे बोलने से सब कुछ सच नहीं होगा , न ही सब कुछ झूठ होगा | जो है जैसा भी है वही होगा , तुम भी देख रहे हो वही सुबह, वही शाम ,न कुछ नया न ही कुछ पुराना है ,बस तुम्हारे देखने की नजरिया कुछ इस प्रकार होता है ,दो रात के बीच में एक दिन और दो दिन के बीच में एक रात | ये दोनों बात सही है और यदि तुम आँख बंद कर लिये तो कुछ भी न होगा ,न ही कोई दिन न ही कोई रात सब सही भी है लक्ष्य के अनुसार ही जीवन की परिभाषा होना चाहिये | लक्ष्य के अनुशार परिभाषा होने के बाद भी मार्ग भी सही होना चाहिये ,अन्यथा मंजिल न मिल पायेगा |

   जब तुमको चाँद पर जाना हो तो तुम्हारे जीवन की परिभाषा " जीवन पानी का बुलबुला है " ऐसा बिल्कुल नहीं होना चाहिये ,अर्थात जीवन की परिभाषा बहुत कुछ है  ,जहाँ जाना हो उसी अनुसार व्यक्ति को चुनाव करना चाहिये, वैसी जीवन की परिभाषा ही ठीक उसी के अनुरूप मार्ग भी हो | भाग्य भरोसे बैठना खुद को कोसना ,ये सिर्फ कायर ही करते है वीर नहीं और वीरो के लिये ही " वीर भोग्याः वसुंधरा " है | एक मेरे कविता की लाइन है -

" है खबर किसे रात आगोस में लेगी किसे 

उलझन है इतनी मुझे जानने को फुर्सत मिले किसे 

यू ही करते है हम सुबह की प्रतीक्षा 

क्या पता वह सुबह बख्शीश क्या देगी किसे " | 

    ये हुंकार वीरो की होगी कायरो की नहीं और वीर कभी भी किसी से आपेक्षित न होगा मेरे दृष्टिकोण में वीर वही जो खुद पर फतह किया हो ,जो खुद को जनता हो जो वर्तमान में जीता हो ,जो सतत होश में हो, तुम खुद को वीर मत समझना तुम तभी वीर कहे जाओगे जब तुम खुद को जान जाओगे की तुम कौन | यह सिर्फ जानना ही न रहे बल्कि ऐसा जिया जाय ,तुम्हारा स्वभाव वर्तमान में जीना हो जाये ,तभी तुम खुद को वीर  समझना अन्यथा नहीं | 

     अन्तःयात्रा ऐसा समझना की जिसे तैरना भी न आता हो वह समुन्द्र में कूद जाय ,अब तुम स्वयं समझना वीर कौन ,वे जिन्हें पता हो जाना कहाँ है मंजिल कहाँ है ,मार्ग कैसा है या वो जिसके सामने घोर अँधेरा हो जिसके सामने पानी ही पानी और बात की तैरना भी न आये और वो सागर में कूद जाये और सबसे विचित्र बात ये है की जो कूदा है वो तैरकर ही दिखया,कोई भी ऐसा नहीं जो आज तक डूबा हो |

       ऐसा है ये अन्तःयात्रा और एक यात्रा तुम कर रहे हो ,जहाँ घडी -घडी डूबना ही है  | इतने साधनों के बाद ,इतने बुध्दि जुक्ति के बाद | मुझे तो थोडा ही नहीं बड़ा ही अजीब लगता है कोई किसी को भी कुछ कह भी नहीं सकता है | हर व्यक्ति खुद के विचार का मालिक होता है और कुछ भी बनना तुमको है ,वीर बने की कायर या कुछ भी न बनो | मेरे विचार में सब ठीक है लेकिन तुमको कभी भी आत्मग्लानी  न हो ,जीवन के किसी मोड़ पर ये ऐहसास न हो की मैंने क्या किया ,क्या न किया ,मुझे क्या करना चाहिये या क्या नहीं | 

      अंत पड़ाव में मरने से मन  विचलित होता है तब समझ में आता है की कुछ छूटा कुछ भूला क्योकि तुम  ये भी जानते हो ,ये जीवन का अंतिम सत्य है | इसे सहज स्वीकारना होगा ,लेकिन ऐसा करने से तुम भय से काप जाते हो तब खुद को बदलने की चेष्टा करते हो | मेरी मनो तो तुम जो थोडा जीये हो उसी का आकलन कर लो सही गलत का फैसला खुद कर लो और ये तुम बड़ी आसानी से कर सकते हो  |

    इसमें तुम माहिर हो और एक मजे की बात ये है की तुम रोज यही करते हो ,फलाना ठीक है ढेकाना खराब ,वो अच्छा वो बुरा ,तो भला खुद के कृत कार्यो को क्यों नहीं अच्छा बुरा ठहरा सकते हो ,ये कर सकते हो परन्तु ये ध्यान रखना अपने स्वार्थ के लिये कोई फैसला न लेना | तुम ये कर सकते हो तुमको खुद सही गलत का पहचान है लेकिन तुम घबराते हो ,क्योकि तुम ये अच्छे से जानते हो परिणाम तुम्हारे पक्ष में न होगा और यही पर तुम चूक जाते हो |

     क्यूकि वहाँ कोई दूसरा नहीं स्वयं तुम होते हो और तुम्हे तो सिर्फ एक बहाना ही चाहिये, खैर तुम्हारी मर्जी लेकिन सच तुम भी जानते हो मै भी जानता हूँ बाहर कुछ है नहीं बस थक जाओगे दौड़ते- दौड़ते कुछ हाथ न पाओगे | 

  हाँ तुम प्रयोग के बड़े माहिर हो तुम एक महिना ,एक हफ्ता या एक दिन भी होश में या वर्तमान में जीने की चेष्टा करना  ,एक दिन भी जी लिये तो समझो अँधेरा समाप्त ही हो गया, ऐसा नहीं हुआ तो प्रयोग मत करना ,दरसल अमृत का स्वाद ही ऐसा होता है | एक बूद मिला की दश बूद मिला , दश बाल्टी मिला की एक सरोवर ,अब पीने को पूरा सागर चाहिये | 

" अमृत है अमरत्व सामर्थ्य जिनकी कुछ ऐसी सबकी कहानी 

खुद तुम भूल गये तो क्या सच रब की ये है जबानी 

एक बूद जो मिला स्वाद तो मचल उठा रूहानी 

बुझा सकेगा प्यास कहाँ अब बंद बोतलों का पानी "

    यही होगा जब थोडा बढोगे ,ये सच है बस एक कदम ही तुम जान बूझ कर चलना ,उसके बाद तुम जान बूझ कर मत चलना ,तुम खुद को रोके भी रखना ,तुम देखना पाओगे ये तुम्हारे बस में न होगा की तुम रुक जाओ या तुम खुद को किसी प्रकार से रोक लो | वास्तव में जीवन के दो ही रास्ते है ,एक बहार की तरफ ले जाती है एक  भीतर की तरफ ले जाती है और जो बहार की तरफ ले जाती है वो थकती है ,उबाती है विषाद ग्रस्त होती है | 

     खुद को खोखला उर्जाहीन तनाव आदि विमारियां प्रदान करती है और जो भीतर की तरफ ले जाती है वो स्थिरता प्रदान करती है | थिरता प्रदान करती है एकाग्रता व् आनन्द प्रदान करती है खुद को तुम विषाद से मुक्त पाओगे खुद को उर्जा से लबालब ,उर्जावान पाओगे खुद को हल्का पाओगे तुम एक ताजगी का अनुभव करोगे | तुम्हारे मन पर तुम्हारा अंकुश होगा पूरे संसार में एक नाद ,एक गम्भीरता पाओगे इससे ज्यादा तुम जाकर या पहुच कर देख लेना अर्थात यात्रा करोगे तो स्वयं सही गलत तुम्हारे हाथ लग जायेगा जिसका तुम अनुभव कर लेना |

 " ये जीना भी क्या जीना कुछ ऐसे जीना 

मोती को छोड़ महज सीप का पानी पीना 

ये उम्र ही क्या हजारो जीवन व्यर्थ हो जायेगा 

मै और मेरे को छोड़ जब खुद को अख्तियार न किना " | 

    खुद को कोसने से कोई लाभ नहीं होता तुममें सामर्थ्य है ,तुम कर सकते हो ये मत सोचना की बिना संघर्ष कोई भी सफल हुआ | सब संघर्ष किये है क्योकि सोना तभी चमकता है जब वह अग्नि में तपाया जाता है | यात्रा तो होगी अगर तुम चाहो बस दृढ़ संकल्प बनी रहे , बस एक बार दीपक जलाना है अगर उलझन है तो एक बार शुरुआत का एक प्रयास का तुम सफल हो जाओगे क्योकि -

" इस जहाँ में नहीं हर जहाँ में कदमो तले बबूल होते है 

इस्तेफाक ये भी है खूबसूरत फूलो के रक्षक भी सूल होते है 

क्या हुआ उम्मीद टूटी विश्वास छूटा बस धैर्य रखना 

क्योकि उस खुदा के घर सच्चे बन्दों की सच्ची बंदगी ही कबूल होते है " |




   

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