वैसे तो सबकी अपनी अपनी जीवन शैली होती है जैसे आम तौर पर सबकी है | पर कवि का जीवन कुछ बेहतर होता है ,यह भी कहना ठीक न होगा | फिर भी कवि का जीवन कुछ तो होता है | यह कहना बहुत आसान है पर समझना थोडा कठिन ,क्योकि कवि का जीवन या लेखको का जीवन आम लोगो से भिन्न होती है | जहाँ तक मै समझता हूँ कवि सच में भावो का द्रष्टा होता है |
वह सच में किसी अनोखी दुनिया में होता है उसकी दुनिया में सर्व भूत प्राणी आनन्द मग्न होते है | कवि के आखों की अगर बात करे तो वह खूबसूरत होता है मै इसलिये ऐसा नहीं कहता कि सच में आखें खूबसूरत होती है | बल्कि इसलिये की कवि की आँख स्वयं अपने आप में एक विराट हृदय होता है | उसी हृदय रूपी आँख से कवि की दुनिया अलग होती है
संसार में जितने भी श्रेष्ट कवि हुये उनकी रचनाओ में देखा जाय तो सिर्फ व् सिर्फ प्रेम का जिक्र है | चाहे वह श्रृगार के रूप में चाहे वह वात्सल्य के रूप में चाहे वह उसका स्वयं के भाव हो या अन्य प्राणी के भाव हो | कवि कैसे स्वयं अपने को विभिन्न स्थानों पर रखकर उन भावो को उद्द्घाटित करता है कही कवि स्वयं पानी बन जाता है तो कही पानी के कल कल के साथ शीतलता का बोध करता है कही कवि स्वयं कविता बन जाता है और कविता बन कर कहता है की तुम मुझे जैसा दिखा दो वैसा मै दिख जाऊगा ,कठोर बनाओ की मार्मिक ,स्नेह से लबालब कर दो फिर भी मुझे कोई तकलीफ नहीं होगी क्यूकि मेरा वही एक सनातन कर्तव्य है भावो को व्यक्त करना |
जहाँ तक मै सही हूँ वहाँ दूसरा कोई नहीं होता वहाँ पर कवि का ही अन्य रूप होता है वह कही देश पर रोता है कही वीरता का आलाप भरता और कही नारियो पर विलाप करता और कही नारियो का हृदय बनने झूठा ही सही लेकिन प्रयास करता है शायद सफल भी होता है सच ये भी है की कवि कोई प्रयास ही नहीं करता | प्रयास करना तो उसे कहते है जिसे कोई कार्य न आवे वह करे और सफल होवे उसे प्रयास कहना ठीक होगा अब साँस लेना कोई प्रयास थोड़े ही होगा कवि थोडा भी न तो जतन करता न ही उद्द्वेग को प्राप्त होता है क्योकि जहाँ जतन है वहां दिमाक बुध्दि द्वारा किया गया कार्य होगा और कवि ठीक इसके विपरीत होता है वह हृदय के उठते तरंगो को देखता है |
उसे समझता है उसके बाद शब्दों का रूप दे देता है हाँलाकि जीवन में कुछ घटनाये ऐसे घटती है खुद को यकीन नहीं होता | वैसे कई घटनाये मेरे भी साथ हुयी जिसका मात्र मै गवाह बना उसको देखा और खुद को तसल्ली दिया | पर फिर भी एक कसक होती है वह कसक हमें दुसरो तक घटनाये साझा करने पर मजबूर कर देती है जैसे एक रोज मै महाविद्यालय में था | कोई मेरे साथ न था मै अकेला बैठा था | शायद मै प्रतीक्षा में था या नहीं ऐसा कुछ भान नहीं होता ,फिर भी कापी के पन्नो पर कुछ पढ़ रहा था कोई एक शब्द ऐसा था | जो मुझे कौधा वह देखते देखते एक वाक्य का रूप ले लिया | तो मैंने सोचा इसे नोट कर ले नहीं तो ये तरंगे को भांति अज्ञात में चली जायेगी यह एक कवि की महत्वपूर्ण और गंम्भीर समस्या है | फिर मैंने भी वैसा ही किया जैसे बेहोसी में भाव का तो पता नहीं लेकिन गुनगुनाने में अच्छा लगा एक दो बार उसे मैंने देखा बस देखते ही देखते दस लाइन बनी होगी |
अचानक मैंने पाया मेरी कलम अन्त के लाइन को पूरा करके रुक गया | फिर मैंने बाद में उसे और कुछ बड़ा करने की कोशिश की पर हुआ नहीं फिर ऐहसास यही हुआ की वह अपने आप में अधूरा नहीं पूरा है| कई दिन कई महीने बीते उसका शीर्षक आँज भी नहीं मिला मै शीर्षक के तलाश में था पर अभी भी मिला नहीं था कुछ लोग व् मेरे मित्रगण उसे पढ़ भी चुके थे थोड़ी तारीफ भी किये कहें ,अच्छे है, तू ये सब लिख कैसे लेता है | मैंने कहाँ छोड़ ये ,इसका भावार्थ बता | जिससे भी मैंने पूछा सब यही कहे मुझे नहीं पता तू ही बता दे | तू तो इसे लिखा है मैंने कहाँ मुझे नहीं पता इसका भाव पर इतना पता है ,ये बाते इस दुनिया की नहीं अध्यात्म की दुनिया की है|
वैसे तो मैंने एक बात और नोटिस किया की कई सारे रचनाये ऐसी है जिनको लिखने के बाद कोई उलट फेर (क्रमबद्धता में परिवर्तन )नहीं करना पड़ा अर्थात वह सहजता से पूरा हो गया | जैसे अन्य कवि रहे है वैसे तो अपनी धरणा नहीं रही है फिर भी एक बात थी मै भी शब्दों के पीछे भागा साथ साथ शब्दों से खेलने का शौक भी हो गया जैसे अन्य कवि करते है फिर भी मैंने देखा खुद में एक कवि वाली प्यास नजर नहीं आयी मुझमे | शायद वो इसलिये की मै किस किस्म का व्यक्ति हूँ मुझे नहीं पता|पर इतना है की मै आज में विश्वास करता हूँ जो कल पर यकीन नहीं करता | इसलिये बहुत बार ऐसा हुआ की लहरो की भांति भाव हुये | वह शब्द का रूप भी ले लिया और एक आकार के भांति कतार में लग गया | मेरे जानने के बावजूद ये तरंगो की भांति जो भाव रूपी लहरे है जो कही लिख न लिया गया तो बाद में ये विसर ही जायेगी |
इतना जानकार भी उन उन लहरों रूपी भावो को कोई शब्द रूप न दिया अर्थात व्यवहार में लिखने का काम न किया | इसको हम क्या कहे इसके लिये हमारे पास कोई उत्तर नहीं | ऐसा नहीं की मै लिख नहीं सकता था असहाय था फिर भी मै उन लहरों को देखकर छोड़ दिया | वैसे तो जीवन में तरंगो की लहरे सबके हृदय में उठती है पर हर कोई शब्द रूप नहीं दे पाता और कभी कभी मैंने देखा है की भांव इतने सघन होते है की सिर्फ व् सिर्फ देखते बनता है एक कवि भी थम सा जाता है की अब क्या करे क्या न करे फिर भी वह कवि शब्दों का रूप दे ही जाता है | वैसे तो इस भीड़ भरी दुनियां की गाथा ही अलग है हर एक वस्तु या शब्द की एक निश्चित परिभाषा है जैसे कवि या लेखक है तो वह फला फला काम करने के बाद ही कवि |और फला फला लेखन के बाद ही लेखक ऐसी- ऐसी कविता हो वैसी हो यहाँ तक की लोग मरने के बाद भी जाँच परताल उस व्यक्ति की करवाते है |
वह संत था या नहीं कहाँ कहाँ चमत्कार किया क्या क्या खाता पीता था कैसे सोता था | कवि था तो वह देश के बारे में नहीं लिखा | बच्चो के बारे में नहीं लिखा ,इसके बाद भी जब लोगो को सुकून मिल जाय मेरा मानना इससे बिल्कुल भिन्न है |कवि तो सब है क्योकि मनुष्य जाती के साथ पूरी पृथ्वी पर जितने जीव जंतु है सब ऐहसास से पूर्ण है | सारा मानव समाज भावो और कल्पना वाला प्राणी है | सबके अपने भाव है और एक कवि भी उसके हृदय में जो भांव होता है उसे ही प्रगट करता है |थोडा सजा कर थोडा अलंकार से पूर्ण करके और यही काम एक आम व्यक्ति नहीं हो पाता ऐसा नहीं की उसके पास भाव नहीं होता या वह भाव बिहीन होता है |
थोड़े कवि अपना कर्तव्य समझ कर रचनाये करते है थोड़े कुछ स्वयं के आनन्द के लिये रचनाये करते है कुछ थोड़े आने वालो के लिये एक धरोहर दे जाते है हाँ ये भी हो सकता है की कवि श्रेष्ट भी हो सकता है दोयम या तेयम भी हो सकता है इसमें कोई फर्क पड़ता है की नम्बर एक है या दस वह कहाँ जायेगां हमेशा कवि | आँज समाज में अजीब धारणा है जिसकी जीतनी अधिक चर्चा है वह उतना बड़ा कवि जिसका चर्चा अधिक वह नम्बर एक जिसकी चर्चा नहीं वह अभी नम्बर में लगा न हो या अंतिम | वैसे सच ये भी है की मै हिंदी का बहुत अधिक ज्ञान नहीं रखता हूँ क्योकि मैंने बी० ए० अंतिम वर्ष में हिंदी छोड़ दिया साथ ही मेरी प्रारम्भिक शिक्षा गणित व् विज्ञान की थी इसलिये हिंदी को न ज्यादा महत्व दे पाया न ही हिंदी मै बेहतर सीख पाया |
हाँ जब मैंने लिखने की शुरुआत की मुझे भरोसा ही नहीं था की मै कविता भी लिख सकता हूँ शायद मै उस वक्त 12वी में था जब किसी तरह से मेरी पहली रचना "आओ हम शपथ ले " पूरा किया तब शायद मै 17-18 साल का रहा होगा उसके बाद मै "नेता जी" के बारे में लिखा उस वक्त चुनाव ही था उसके बाद मैंने एक रचना "हम अनाथ है " किया | मैंने एक बात उस वक्त नोट किया जब किसी तरह मै अपनी रचनाओ को कुछ व्यक्तियों को सुनाने लगा क्योकि मुझे यह ज्ञात हो गया था की अच्छे बुरे का खबर दुसरे से ही मिलता है |
वैसे तो मै कई कविओ के बारे में जनता हू की वे लिखने के बाद बेहतर से बेहतर विव्दानो को दिखाते थे जिससे मुझे भी बोध हुआ की कम से कम एक व्यक्ती को चुनना ही पड़ेगा यह मेरे जीवन की सबसे बड़ी समस्या रही फिर भी भगवान के दया से वो भी हुआ | वैसे तो साधु संतो का आदर करना शायद मेरे खून में था फिर भी मै अपने गाँव में ही आश्रम के भगवान प्रेमी (गोपाल दास ) चाचा को कई दिनों तक नहीं दिखाया उनसे हमारी बनती थी और ये भी बात नहीं की मै वहाँ नहीं जा रहाँ था | यु कह लीजिये प्रेम हो गया है उनसे | किसी दिन संजोग बना उनसे मै कुछ कहाँ और रचनाओ का जिक्र किया फिर अगले दिन से मै उनको हर रोज दोपहर के समय एक दो या तीन रचनाये दिखता | वो हमारे रचनाओ को पढ़ते और जो कुछ दोष होता उसको मुझसे ठीक करवाते |
एक बात मै अपने हृदय में देखा मुझे रचनाओं की अभिलाषा न थी इसके बाद भी न जाने कैसे ये सब लिख दिया | अभिलाषा न होने के कारण या कवि बनके दुनिया के लिये कविता करना ऐसी कोई आकांक्षा न होने कारण न तो मै किसी विव्दानो से मिला न ही किसी हिंदी बोर्ड कार्यालय का चक्कर लगाया | ये सच है की विव्दानो के आभाव में मेरे रचनाओ में दोष देखने को मिल सकता है | नहीं भी मिल सकता है मुझे नहीं पता | लेकिन हृदय में एक तसल्ली मिलती है कि अब लगभग सही है जो लिखता हूँ | लेखन में निखार भी आया जिसका श्रेह किसी एक व्यक्ति को जाता है |
जिनके द्वारा मेरे रचनाओ के छोटे बड़े समस्याओ का निदान हो जाता है | हमारा एक जो बहुत बड़ी समस्या था रचनाओ के बाबत उसके हल के रूप हमारे चाचा महराज गोपालदास जी रूप में मिल गया था | उनको मै चाचा ही कहता हूँ चाचा एक बात बार-बार मुझसे बोलते कि तुम्हारे भाव बड़े ही अच्छे है | ये सच है कि चाचा के मार्गदर्शन में मुझे लगभग रचनाओ का सही बोध हुआ की किस प्रकार के रचनाओ में किस प्रकार के शब्द रखने चाहिये | मै ये स्पष्ट यह कह सकता हूँ कि अगर मै तलवार हूँ तो उस पर सही धार चाचा ने ही दिया |
एक कवि के बारे में कुछ भी कहना आसान न होगा | मै कवि तो नहीं हूँ फिर भी मै दावे के साथ कह सकता हूँ | इसका मुझे अनुभव भी है कवि को जनना है तो उसके पूरे रचनाओ के बारे में जनना होगा | उसके जीवन में जो भी उतार चढ़ाव होगे उसके रचनाओ में साफ साफ झलकेगे इसमें कोई संदेह नहीं क्योकि हर रचना उसका ही अभिन्न रूप ही होता है | एक कवि चाहकर भी स्वयं को खुद के रचनाओ से अलग नहीं कर सकता है |जाने अंजाने में वह कवि ही रचनाओ में होता है मेरा खुद का अनुभव है कि किसी भी रचनाकार के व्यवहार के जीवन को देखकर कुछ भी अंदाजा लगाना गलत होगा क्योकि एक कवि जो होता है वह दिखता नहीं उसकी सही पहचान उसकी रचनाओ से हो सकता है |
इसका मतलब यह की उसके रचनाओ के माध्यम से कुछ हद तक अनुमान लगाया जा सकता है | पर एक कवि के बारे में स्वयं उससे बेहतर शायद कोई नहीं जान सकता है | उसकी दुनिया भी पेचीदा होती है यू समझ लीजिये एक कागज कलम के साथ मे एक बंद कमरा जहाँ पर कवि होगा और सिर्फ उसकी दुनियां | मैंने ये सुना है स्वयं जाना है कि कविता के लिये दृश्य बोध जरुरी है लेकिन स्वयं मै इसका अपवाद तो नहीं पर कल्पना मात्र से भी सारे रचनाओ को किया | और सही भी है सभी कवि या लेखक यही करते भी है |
लेकिन कुछ रचनाये बगैर दृश्य के सम्भव नहीं जिसमे प्रकृति चित्रण मुख्य है | वही कुछ रचनाये बगैर अनुभव के सम्भव नहीं हो पायेगा | मेरी सारी की सारी रचनाये बंद कमरे में कल्पना मात्र के सहारे हुयी | चाहे वह श्रृगार प्रधान हो या प्रकृति चित्रण चाहे वह बोध भरा हो | रचनाये करने के बाद मैंने पाया की जो मै लिखा हूँ उससे मै महजूद हूँ वही पर एक गवाह की भाति जैसे सारी घटनाये मेरे सामने हुयी हो जैसे "बारिश का एक दिन " कविता में मुझे लगता है की मै बारिश में उसे भीग कर लिखा हूँ | "बसन्त बयार " में मै बसन्त का एक हिस्सा बन जाता हूँ और चिडियों की भांति मै चहक कर गाता हूँ | मुझे याद है जब मै किसी शीर्षक पर रचना कर रहा था | तब दोपहर का वक्त था मै घर आया जिस घर में मै रहता हूँ वह कच्ची है या ऐसे समझिये मेरा सारा मकान कच्ची मिट्टी का है | मै घर के भीतर गया जहाँ दिन का प्रकाश भी नहीं पहुच पाता है |
वहां मै प्रकाश किया कुछ और भी रचनाये चल रही थी मैंने सोचा की उसी रचना को पूरा कर दू उसी के प्रयास में भी था लेकिन मै कुछ नहीं कर पा रहाँ हूँ ऐसा मुझे लगा | फिर अचानक मैंने देखा भीतर हृदय में एक लहरे उठने लगी वह लहरे दिल की थी | मेरे और दिल की बात चित थी और उस दिन "हाँल दिल खुद से कहू " रचना पूरी हुई लेकिन इसके पहले जो शुरू हुआ था रचना वह उस दिन पूरा न हुआ | उस दिन मैंने एक नया चीज नोट किया जैसे मै गहरे नसे में हूँ मेरी आँखे लाल मेरी समझ बुझ खो गयी मुझे कुछ भी नहीं पता मेरी हालत बेवडो के भाति हो गयी थी जैसे मै सच में आँज शराब पी हो ऐसा अनुभव हुआ | एक चहकने वाला पंक्षी अचानक खामोश जब होता है तो लोग उसे बीमार समझते है या उसे निष्क्रिय समझते है |
सच तो ये भी है की उस पंक्षी को भी कुछ भी नहीं पता है उस पंक्षी को हुआ क्या | बस वह पंक्षी एक नये जीवन का अनुभव करता है वह सब कुछ देख पाता है जब वह खुश होता तब , जब वह दुखी होता है तब | इस देखने के कारण ही व्यवहार में कोई झलक नहीं मिलता है इसलिये शायद वह उदासीन बना रहता है फिर भी वह भीतर झूमता भी है किन्तु किसी को दिखाई नहीं देता है | किसी कवि की रचनाओ को पढ़कर जब रोगटे खड़े हो जाते है तो पता चलता है कवि उत्साह शौर्य से भरा है जब व्यक्ति रचनाये पढ़ने के बाद हर्ष उल्लास के साथ गाता है तो पता चलता है की उक्त कवि भी गया होगा | लेकिन ये बाते व्यवहार में कवि के जीवन में दिखाई नहीं देता है शायद वो इसलिए की वह दुसरे तरंगो की लहरों को देख रहा है वह एक नये आयाम से जुड़ जाता है क्योकि कवि के लिये सच में एक क्षण फुर्सत नहीं होता है |
मै एक बार स्वयं लिख रहाँ था चार छः पैर लिखा होगा और ये चार छः पैरा आसानी से पूरा हो गया फिर मै सोचा इसे पूरा कर दू बाप रे हुआ की बैठे बैठे एक घंटे बीता दो घंटे तीन घंटे बीता अंत में देखा मैंने मुझसे कुछ न हुआ फिर मुझे उस घडी का प्रतीक्षा करना पड़ा जिस घडी में वह पूरा हुआ | वैसे मैंने बहुत सारी रचनाये नहीं की फिर भी कभी कभी ऐसा लगता है कि मैंने बहुत कुछ लिख दियाहै |
मै जब भी लिखने को तैयार होता हूँ तो यह ज्ञात होता है कि यह बात किसी और के द्वरा बताया गया है या किसी के द्वारा कही गयीं है मै पुनः उसी को दोहरा रहा हूँ मेरे सारे रचनाये अध्यात्म से है जिसमे प्रेम के थोड़े तीखे झलक मिलते है या एक खुद का न खोया हुआ न जाना हुआ भाव होते है या जो कुछ व्यक्ति हो सकता है या जिसका हर व्यक्ति अधिकारी होता है या मनुष्य का सामर्थ्य क्या है |
जो रचनाये तुम हम सहज पढ़ लेते है चंद मिनटों में ठीक लगा तो अच्छा है लाजवाब कह देते है अगर नहीं जचा तो बकवास कह के अगली कविता पढ़ते हो या दूसरा कोई काम करते है | क्या तुमने कभी सोचा कि ये रचनाये जो मैंने पढ़ी यह कितने दिन में महीने या साल में पूरी हुयी है | इसके लिये कितने पन्ने खर्च हुये है उसको पूरा करने के लिये क्या क्या करना पड़ा है |
यह एक कवि ही जान सकता है की कैसे वह रात भर सितारों को देखर या दिन के उजाले को देखकर ,प्रकृति के विभिन्न छटाओ को देखकर अपने स्वप्न के दुनिया में खोकर ,उठती हुयी तरंगो को देखकर ,एक क्रम बध्दता व् लयबध्दता में संजोते हुये मोती के माला की भांति उसे अपने भावो के जरिये कागज पर एक नयी दुनिया देता है | यहाँ तक तो ठीक है पर उसी समय कोई विघ्न पड़ता है तो सारे सपने टूट जाते है | इसका सबको बढियाँ अनुभव है क्योकि सपने सब देखते है जब वह टूटते है तो फिर जुड़े न जुड़ते फिर भी कवि ऐसा असंम्भव प्रयत्न करता है और सफल भी होता है | लिखते वक्त भाव के साथ दिमाक का प्रयोग करना होता है |
यह एक दुष्कर कार्य कार्य है क्योकि दिमाक और हृदय को नियोजित कर पाना एक कठिन कार्य है यह साधारणतया सभी जानते है | फिर भी कवि ऐसा करता है क्योकि उसको ध्यान रखना होता है कि कही मेरे भावो के द्वारा समाज व् जनजीवन का पतन तो नहीं हो रहा ,कोई हमारे भावो से आहात तो नहीं हो रहा | लिखते वक्त इतना बोध रखना होता है कि हमारे लेखन से जनमानस का कल्याण हो ,समाज में लोगो को एक प्रेरणा मिले समाज व् जनजीवन उत्थान को प्राप्त हो | चूकी कवि का कर्तव्य ही होता है समाज में नवचेतना पहुचना व्यक्ति के सोये हुये आत्मा को जगाना और हर व्यक्ति को उत्थान की तरफ अग्रसर करना | ऐसा माना जाना ठीक है की प्रेम को केवल साधु समाज ने जाना साधु से आशय आँज वालो से नहीं जो दुकान खोल के बैठे है |
वो जैसे कबीर, नानक, रैदाश, दादू, रामकृष्ण परमहंस, मीरा, आदि | ऐसा नहीं कि आँज भी ऐसे लोग नहीं है , वो है इतने जितने शायद गिना जाना थोडा मुश्किल है | क्योकि वो होते है ऐसे जैसे है ही नहीं ठीक भी है ,प्रेम जैसे विराट व् नित्य बोध रूपी अनुभव को संत समाज ने ही जाना और संतो ने जनया भी ,अपितु वह भाषा इतनी अनूठी है की आम लोगो को समझना थोडा ही नहीं अपितु बहुत मुश्किल है और कवि क्या करते इनके इशारे को थोडा समझ कर प्रेम का एक लम्बा चौड़ा भाव भी दिया यह कवियो की ही देंन है | और ये ठीक भी है की जहाँ कुछ नहीं समझ आये वहां थोडा ही सही |
इस संसार के सारे दुर्धर कार्य कविओ ने ही किया है जैसे मौन को शब्द रूप दे देना | प्रेम को परिभाषित करना आदि ये सब कार्य कवियों की ही दें है | एक अंजान लोक की यात्रा ,प्रेम के भाव शान्ति यहाँ तक समाधि जैसी अनुभव के विषय को भी कवियों ने अपने भावो के द्वरा कोरी ही सही पर बताने का कार्य किया है | मेरा खुद का मानना है कि कवि एक साधक ही होता है जैसे साधक नित्य ,नित्य चलता रहता है | कुछ नये के तलाश में कुछ नए भावो के रंगो में हमेशा सने रहना चाहता है कवि और साधक में बहुत ज्यादे भेद नहीं होता है |
साधक खुद की खोज करता है और कवि भी खुद की आवाज कहता है खुद के हृदय भाव कहता है | साधक केवल गवाह भर बन जाता है और कवि अपने भावो का पहला दर्शक के साथ पहला पाठक बनकर अपने भावो का स्वागत करता है | वह व्यक्ति उस हर भावो का पहला साक्षी ही होगा ,जिसने भी अपने भीतर उठते हुये भावो को देखा | कवि भावो को बहार भी देखता है और भीतर भी देखता है और साधक केवल भीतर ही देखता है और बाहर उन भावो को नहीं उकेरता है उकेर भी सकता है जैसी उसकी मर्जी |यहाँ ऊपर संत जन का जिक्र हुआ है जो जरुरी था |
क्योकि हमारे भारत में बहुत सारे तत्वदर्शी कवि भी हुये और लेखक भी हुये जिनके लेखन या कविता से यह प्रतीत होता है कि ये भीतर की आवाज है जो हम बहार से देख रहे है | संसार के सारे कवि ऐसे नहीं जो आँसू न बहाए हो पर वह दिखाई नहीं देता क्योकि वह प्रेम के आँसू थे इसके साथ साथ मनुष्यों की दीनता को देखकर बहुतो ने सारी उम्र सारी रात सोये नहीं अंत तक रोये आँज भी उनके शोर सुनाई देते है |
दिनकर जी की एक कविता मै पढ़ रहाँ था पढने के बाद मुझे ऐसे लगा जैसे आँज भी दिनकर जी आजादी की लड़ाई लद रहे है और शायद अनन्त काल तक वो लड़ेगे | जब तक सारी कायनात के मनुष्य स्वतन्त्र न हो जाये | महराज कबीर से जब नहीं रह गया तो वो चिल्लाने लगे ,खूब चिल्लाये ,वो जानते थे की मेरे चिल्लाने से कुछ न होगा फिर भी चिल्लाये, खूब बोले फटकार लगाये क्यूकि वो ये भी जानते थे कि औषधि अगर किसी तरह पेट तक पहुच जाये तो वह अपना काम कर देगा | शायद कुछ जगे हो और निश्चित रूप से ही जगे होगे क्योकि कविओ की बात आत्मा की बात है हृदय की बात है वह सीधा हृदय में ही घर करता है | जब भी कभी मै आकलन करता हूँ तो पता हूँ की एक कवि ही अपने उत्तरदायित्व का निर्वहन ईमानदारी से करता है
| वह खाते पीते ,सोते जागते और उठते बैठते उसका ध्यान अपनी रचनाओ पर होता है | जिसको वह पूरा कर रहाँ होता है वह बाजार में भी जाता है या किसी शादी विवाह या किसी भी प्रकार के काम में होने के बावजूद वह अपने रचनाओ को पूरा करता है या किसी उठाते हुये लहरों के भावो को एक कागज पर नोट करता है या प्रयास करता है | प्रयास का मतलब उसके पास यदि कलम पेपर न होने पर थोडा दूर भी चला जाता है किसी भी तरह उन भावो को वह नोट करता है | एक बार मै पढ़ रहाँ था पढने के बाद ऐहसास हुआ की कि "अगर ऐसा न होता तो क्या होता " मसलन बात यह है की पूरा भारत एक गीत गुनगुनाता है "ऐ मेरे वतन के लोगो " जिसको लता जी बहुत ख़ूबसूरती से गायी है आँज भी जब ये गीत कही पर बजता है तो लगता है की लता जी बस अभी अभी गीत गा रही है |
आँखे नम हो जाती है हृदय भाव बिभोर , मन स्तब्ध हो जाता है और पाँव थम सा जाता है, ऐसा है वह गीत और उनकी आवाज का जादू पर क्या कभी यह बात समझ आयी किसी को, कि इसको किसने लिखा कैसे कहाँ किस रूप में इस गीत की रचना किया | इस गीत के रचनाकार कवि प्रदीप है वैसे तो कवि प्रदीप बच्चो के हीरो है | इन्होने बच्चो बच्चो के लिये बहुत सारी रचनाये की | कवि प्रदीप के बारे में मै स्वयं बहुत कुछ नहीं जनता पर इतना अवश्य कह सकता हूँ की वो मस्त मौले रहे होगे | मैंने पढ़ा है प्रदीप जी किसी काम से एक दिन बाजार में थे |
अचानक उनको कुछ कौधा , कौधा ही होगा नहीं तो ऐसे भाव नहीं बनते है उन्होंने अपने खुद के भीतर एक लहर पायी जिसका शब्द रूप " ऐ मेरे वतन के लोगो " था उनको अच्छा लगा और कवि प्रदीप जैसे व्यक्ति को अच्छा ही लगा होगा और उनको लगा ही होगा कि इसे नोट करना चाहिए नहीं तो बाद में ये तरंगे दूर निकल जायेगी |
अब बाजार में कोई कागज कलम लेके तो घूमता तो नहीं अब बाजार में कोई कैसे लिखता पर उन्होंने वही लिखना चाहा लेकिन उनके पास कागज कलम नहीं थे | वे थोडा इधर उधर देखे काम न बना वहाँ कोई जनरल स्टोर की दुकान न थी अब वो क्या करते उनकी विवसता मै समझ सकता हूँ अब किससे कहते की भाई किसी कागज कलम का बन्दोबस्त करो मै रचना लिखने वाला हूँ नहीं तो बाद में भूल जाऊगा ऐसा करते तो हसी के पात्र होते पर पर मै जनता हूँ वो ऐसा भी किये होगे पर फिर भी कुछ न हो सका किसी तरह से एक कलम मिला उनको अब भी एक पेज या पन्नो की तलाश थी | मै तो कवि प्रदीप को देखा नहीं पर इतना स्पष्ट कह सकता हूँ की उनकी हालत वैसी रही होगी जैसे एक व्यक्ति का सब कुछ लूटने वाला हो | किसी तरह वो एक चाय वाले के दुकान पर गये | वे सिगरेट पीते थे की नहीं मुझे नहीं पता फिर भी उन्होंने एक सिगरेट का खाली डिब्बा लिया |
उसे खोलकर उसके अंदर वाले भाग में छोटे- छोटे शब्दों में लिखकर उसे अपने पाकिट में जब तक रख नहीं लिये होगे तब तक उनको चैन नहीं आया होगा | मेरा मानना भी यही है ऐसा करने तक कवि प्रदीप को चैन मिलना भी नहीं चाहिए था | क्योकि अगर वो चूकते तो आँज हम उस गीत से पूरी तरह चूक जाते क्योकि ये भाव प्रदीप जी के थे कोई और इसे कैसे पूरा कर सकता है | अब कहने की जरुरत नहीं है की उस दिन सिगरेट का एक डिब्बा न होता तो क्या होता | मै सच कहू तो कूछ न होता लता जी भी होती कवि प्रदीप भी होते पर "ऐ मेरे वतन के लोगो " ये गीत हमारे बीच न होता | ऐसा भी नहीं की मै चाहता हूँ की दुनिया कवि प्रदीप की पूजा करे | न प्रदीप जी चाहे होगे की लोग मुझे जाने की इस गीत को मैंने लिखा है |
जहाँ तक मै समझता हूँ प्रदीप जी इस बात से खुश हुये होगे की इस भाव के या इस गीत के वे सबसे पहले द्रष्टा हुये सबसे पहले उन्होंने इस गीत को गुनगुनाया और मै सही हूँ तो यह आनन्द यह ख़ुशी किसी नोबेल पुरस्कार विजेता से कम नहीं होता | इस बात को मै भी गर्व से कह सकता हूँ जो आनन्द का अनुभव रचना के बाद उसे गुनगुनाने में होता है वह आनन्द नोबेल प्राप्त करने के दौरान भी न होगा | हालाँकि मेरे खुद के जीवन में मेरे चाहने वाले भी मुझे कागज कलम साथ रखने को कहाँ और मैंने किया भी और कवि प्रदीप का मै समर्थक हूँ की ऐसी घटनाये हर कवियो के साथ होता है |
मै तो स्वयं अपने को कवि मनता नहीं, न ही शायद मान पाऊगा क्योकि मेरा आत्मा यह स्वीकारता नहीं फिर भी अन्य कवि से अनुरोध रहेगा की ऐसी लहरे या भाव नहीं छोड़ना चाहिये | नहीं तो यह समाज एक भाव से एक बोध से चूक जाएगा जो अनुचित होगा | वैसे मै तो सहज ही लिख लेता हूँ बिना किसी प्रयास के कोई जतन नहीं कोई प्रयोजन नहीं बस लिख लिया जाता है | ऐसा नहीं की मै अपवाद हूँ जैसे अन्य कवियों के साथ होता है वैसे मेरे साथ भी होता है उन्ही की भांति मेरे भी भाव होते है | मै भी उनको देखता हूँ और शब्दों का रूप देता हूँ लेकिन लिखने के बाद देखता हूँ तो ऐसा लगता है जैसे मैंने नहीं कोई और इस रचना को पूरा किया और ये ठीक भी है ,मै क्या कर पाऊगा ,क्या कर सकता हूँ बस कुछ नहीं |
मेरे अब तक के लेखनी में मै एक हफ्ते में 6 से 7 रचनाये किये है जो की थोडा दुर्लभ है लेकिन असंम्भव नहीं | यहाँ तक की एक दिन में दो से तीन तक रचनाये मेरे द्वारा हुआ है | मुझे भी थोडा आश्चर्य लगा की कैसे हो गया ये सब ऐसा बाद में बोध हुआ सब सहज ही हो जाता है | ये सत्य है की लिखने का एक सही समय होता है उसका कोई ठीक नहीं की कब लहरे उठ जाये ,कब हृदय में एक भाव बन जाये किसी दृश्य को देखकर या कल्पनाओ के दुनिया को देखकर |
मै खुद इसलिये नहीं लिखता की मुझे कोई सोहरत पाना है ऐसा नहीं की मुझे सोहरत से घृणा है ,मै तो इसलिए लिखता हूँ की मुझे एक तृप्ति का बोध होता है एक आनन्द होता है | कविता को तैयार करने में मै सच कहू तो मेरे पास कोई ऐसा शब्द नहीं की मै बयाँ कर सकू कितना आत्म सुख मिलता है भावो या एक रचना करने में | शायद मै सही हूँ तो संसार के सारे कवियो को इसका ऐहसास हुआ होगा कि कविता करने में एक अलग आनन्द मिलता है |
हाँलाकि आज की स्थिति वैसी नहीं रही अब तो कवि होना लेखक होना एक इंजीनियरिग कोर्स के जैसा हो गया है | लोग नाम पैसा के लिये इसे एक बेहतर विकल्प मानते है | फिर भी मै गलत भी हो सकता हूँ ठीक भी होगा की मै गलत हो जाऊ कि उन जैसे जो गुजर गये अब कवि नहीं होगे उनकी बात ही कुछ और थी | कुछ कवि को देखा गया की वो पूछने पर भी नहीं बता पाए की वे लिखते क्यों है | कुछ तो कुछ भी उत्तर नहीं दिये इस क्यों का | कुछ दिये की ईश्वर की मर्जी और इससे ज्यादा कुछ नहीं |
मुझसे भी मेरे साथी पूछते है ये कैसे लिख लेते हो और मुझे भी नहीं समझ आता है कोई उत्तर कि कैसे मै लिखता हूँ | ये भाव कैसे बनते है चूकी ये दिमाक का काम नहीं जो सोचने से हो जाये ,या तर्क वितर्क से हो जाये यर हृदय देश के भाव है | न जाने कैसे उठते है ,खुद को तरोताजा और नित्य नूतन करके चले जाते है | मैंने भी देखा है की ये भाव हमेशा नहीं होते | मै जब चाहे 24 घंटे मै बैठकर एक रचना का रूप दे सकू |
रचना तब ही सम्भव है अन्यथा नहीं ,हाँ जब किसी क्षण हृदय देश में कोई भाव कौधता है तो वह दिखता है उसके बाद ही दिमाक अपना काम करता है जैसे मै एक दिन बाजार में था वहाँ एक कुर्सी पर बैठा था | उसी बाजार के गति विधियों को पढ़ रहाँ था देखते देखते किसी महिला को मै पानी पूरी खाते देखा तो अचानक मैंने भीतर कुछ लहरे पाया जबकि इस घटना के पहले मै किसी व्यक्ति से बातकर रहाँ था फिर मै उसी जहग बैठकर एक रचना पूरा किया |
जिसका शीर्षक "तू आना मेरी गली " है ये कौध ये लहरे ये भाव कही भी हो सकते है चाहे वह शादी का दिन ही क्यू हो या फिर अन्तेष्ठी का दिन हो |जब ये भाव उठती है तो एक अजीब बेचैनी होती है वह भाव जब तक रचनाये का रूप न ले तब तक बेचैनी होती रहती है या उन भावो को विसरने के लिये छोड़ दिया जाय | देखा जाय तो ऐसा हो नहीं पता है ,क्योकि मै एक बार घर के शादी में था लड़के की शादी थी शांम को मेरे आस पड़ोस के सभी साथी आये थे सब बातचीत में तल्लीन थे | मुझसे भी अपेक्षित थे पर मुझसे ऐसा नहीं हो पा रहाँ था क्योकि मै अपने भीतर कुछ और देख रहाँ था उसी को मै बुन रहा था | मैंने सोचा चलो अगले दिन इसे कागज पर उतार लूगा क्यूकि आँज फुर्सत नहीं है फिर भी ऐसा हो न सका |
मै ना चाहते हुये वहाँ से उठा एक कागज पेन लिया और मैंने अंततः देखा एक रचना मेरे द्वारा हुआ | जो मुझे भी पढने में अच्छा लगा, उसके बाद मैंने देखा की अब खुद की स्थिति बेहतर हो गया फिर मै मेरे साथियो से बातचीत करने लगा जो की कुछ देर पहले सम्भव न था ऐसा क्यों होता है ,कुछ कहाँ नहीं जा सकता | भले ही एक रचना एक बार में पूरी न हो फिर भी जीतनी भाव उठी उतनी ही तब तक चैन से रहने नहीं देती है ,जब तक की उसे संग्रहित न किया जाय चाहे वह चार लाइन या सिर्फ दो लाइन ही क्यू न हो या फिर उसे खो दिया जाय|
मेरा खुद का अनुभव है की जितना सहज है किसी भाव को संग्रहित कर लेना या कागज के पन्नो पर उतार लेना इससे कही कठिन कार्य है उसे भूलने का प्रयास करना शयद यह काम हो पता है क्यूकि न चाहते हुये पूरा चिंतन उन्ही शब्दों या भावो पर होता है इन भावो से पार थोडा मुश्किल है पर असंम्भव नहीं फिर यदि हम पार भी हो जाते है तो वह भाव रूपी स्त्री कुछ दूर तक हमारे अंतर मन में रहने के साथ साथ न चाहते हुये पीछा भी करती है | ऐसी बहुत सारी घटनाये मेरे भी साथ हुयी यद्यपि मै गर्मी के दिनों में आसमान के नीचे सोता हूँ जिसमे नीद न आने पर तारे के साथ चन्द्रमा का दर्शन हो ही जाता है |
चन्द्रमा न भी रहे तो तारे के साथ उस विराट आसमां को देखते ही बनता है उन क्षणों में बहुत बार रचनाओ की तरंगे मेरे भीतर उठने के साथ- साथ थोडा बहुत बेचैन तो कर ही देती है बेचैन इसलिए उन भावो को संजोया जाय | मजा तो इस बात में है की शुरू में जो भाव होते है वे हृदय में कविता रूप लेकर दो चार लाइन ही होते है पर जब उन्ही भावो को पन्नो पर उतरा जाता है तो वह 40 से 50 या उससे अधिक भी होता है | मैंने स्वयं यह भी देखा है परन्तु किसी कारण वह छूटा तो भरोसा नहीं कब पूरा होगा अगले क्षण भी हो सकता है कई सालो में भी हो सकता है | चांदनी रात में मै रचनाये तो बहुत किया जिसमे से एक रचना है "चांदनी रात " यह रचना रात में ही हुआ वो भी मोबाईल के प्रकाश में क्यूकि घर पर मेरी मम्मी या अन्य लोगो को पता न चले क्योकि हमारी माता जी मुझे लेकर ज्यादे फ़िक्र मंद रहती है |
" चान्दनी रात " रचना में जो भी भाव है वह सिर्फ व् सिर्फ अनुभव का विषय है एक अजीव अनुभव यह रचना रचना तो बहुत ही छोटी है | लगभग 15-16 लाइन का पर मुझे ऐसा लगा की यह जो भी है वह अपने आप में पूरा है| मुझे ऐसा भी लगता है की जो थोडा बहुत भी प्रेम करते है किसी से भी उनको चाँद तारे बड़े प्रिय लगते है अगर मै सच कहू तो ऐसा होना भी चाहिये ,क्यूकि संसार में अगर कुछ करने को है तो वह प्रेम ही है अगर कुछ किया जा सकता है तो वह है प्रेम और किसी को कुछ दिया जा सकता है तो वह है प्रेम |
इसके बाद सारे कृत कार्य व्यर्थ ही है नाशवान है यही अंतिम सत्य भी है और पहला सत्य भी | इस कविता में यह संकेत है की चांदनी रात क्या होती है न वह फूल , न ही कोई रंग न ही ही कोई वस्तु या पदार्थ फिर भी उस रात या चाँदनी रात की बाते हर जगह होती है | " ना कोई फूलो सा गंध उसमे ,ना कोई रंग उसमे ना कलियों सी कोई होती राज ,फिर भी त्रिभुवन में उसी की होती बात, बड़ी भोली बाते है |
इसमें एक लाइन है रसिको को कुछ ना भाये उसके बिना कुछ रास ना आये | इस संसार में बहुत ऐसे भी है जिनको रातो से डर भी लगता है ,वो बेचारे चांदनी रात को क्या देख पायेगे और जो किसी भी तरह से देख पायेगे और जो किसी भी तरह से देखा ,थोडा ठहरा अपना नाता जोड़ा उनको यह अनुभूति जरुर प्राप्त होगी क्यूकि मनुष्य जाति का स्वभाव ही प्रेम है उसका अस्तित्व ही प्रेम है जैसे अबोध बालक सैकड़ो माँ के भीड़ में घूघट के बावजूद अपने माँ को पहचान लेता है | सैकड़ो गाँयो के बीच में अपने माँ के होने का आहट बिना देखे बछड़ा पहचान लेता है |
वैसे ही व्यक्ति के हृदय में पड़े दबे उसका खुद का व्यक्तित्व सामने आने लगता है जब थोडा सा भाव प्रेम का मिलने लगता या थोड़ी प्रेम मिलने पर | ऐसा मै इसलिये नहीं कहता हूँ की मुझमे एक कवि बोल रहां है ऐसा मै इसलिए भी नहीं बोल रहाँ हूँ की मुझे प्रेम की चाह है ऐसा मै इसलिये बोल रहां हूँ की ऐसा मनुष्य का स्वभाव है ऐसा होना ही चाहिए सच यह भी है की ऐसा होता भी है |
वह भी सबके साथ चाहे वह निरंकुश ही रहे या वह विधर्मी ही क्यू न हो वह भी ठहरता है | वह भी झूमता है पर वह इसे भ्रम समझ कर भुला देता है | इन्ही भ्रमो को कवि दूर करने का प्रयास करता है अपने रचनाओ के द्वारा हांलाकि यह भाव उस कवि के होते है फिर भी वह औरो को जगा सकता है जीला सकता है | मैंने देखा एक हमारे भाई साहब थे, केवल वही नहीं बहुत सारे लोग हो सकते है जो कुछ बाते पर विश्वास नहीं करते है,और उनको खुद पर यकीन होता है की वो ऐसा नहीं ऐसा उनका मानना होता है की प्रेम के लिये वस्तु की आवश्यकता होती है जब वही एक दिन एक लाइन मेरे द्वारा सुने ,
"चंदा आया चंदा आया
अपने साथ उजियारा लाया
शीतल मंद श्यामल जैसी
एक पाख पूरा तीन तैसी
सब बच्चो का प्यरा मामा
ढेर सारा खिलौना लाया "
तो बोल उठे बहुत अच्छा है मैंने कहाँ भाई साहब ये बाते तो महज झूठी बाते है | चंदा न तो आता है न ही कही जाता और सब तो ठीक पर चंदा मामा खिलौना कहाँ से लायेगा उसको तो ये भी नहीं पता की खिलौनों का बाजार कहाँ है | फिर वो हस पड़े मैंने उनसे कहाँ भाई साहब ये आप को क्यू अच्छे लगे उन्होंने कहाँ बस अच्छे लगे पता नही क्यू |
मैंने पीछे कवि प्रदीप की चर्चा की है उन्ही के बारे में पढ़ा है उन्होंने कहाँ था जो कवि बच्चो के लिये कुछ नहीं लिखता वह कवि अभागा होता है मैंने उनके विचारो को थोडा समझने का प्रयास किया तो मुझे लगा की उनकी बाते सही है | बच्चो के लिये लिखना कोई आसान काम नहीं है मैंने तो शुरू में अर्थात लेखनी के शुरुआत के समय में ही बच्चो पर लिखा था पर इनकी बाते समझने के बाद कुछ और भी लिखे |
वैसे तो मै बच्चो के लिये ज्यादा रचनाये नहीं कर पाया अब तक होगे भी तो गिनती के लगभग आठ या दश | फिर भी मेरा मानना है की बच्चो के लिये लिखना बहुत बड़ी बात है | मित्रो मै एक बात आप से स्पष्ट कर दू की मुझे खुद गद्यांशो की रचना करना ठीक नहीं लगता पता नहीं क्यू मुझे ऐसा प्रतीत होता है जितने समय में आप कहानी या उपन्यास लिखेगे ,उतने समय में कई कविता की रचना कर सकते है साथ ही साथ मुझे कम शब्दों में ज्यादा से ज्यादा भाव देना अच्छा लगता है यह जो आप पढ़ रहे है शिर्षक "कवि की जीवन और उसकी रचनाये "मैंने क्यू लिखा इसका भी मुझे नहीं पता और मुझे ऐसा लगता है ,की मैंने इसके लिये थोडा सा प्रयास भी नहीं किया बस एक दिन मै बैठा था अचानक अपनी कापी उठाई फिर मैंने सोचा कवियो की जीवन वाकई अजीब होते है |आखिर उनको चाहिये क्या , एक श्रेष्ट कवि को क्या चाहिए |
यह कह पाना मेरे लिये भी बहुत कठिन ही नहीं असंम्भव है बस यह कह सकता हूँ की उनकी मौज उनकी रचना | यद्यपि आज कल एक पेशा बन गया है, लोग लिखते है लिखने के बाद खुद के पैसो से छपवाते है शायद इस उम्मीद से की इसमें खुद को पैसा व् प्रसिध्दि मिल जाय | जबकि एक श्रेष्ट कवि को यह सब नहीं चाहिए होता है | जैसे महाकवि गोस्वामी तुलसीदास को यह दुनिया क्या दे सकती है उन्होंने रामचरित मानस विनय पत्रिका आदि रचनाये समाज को दिया | कहने को हम कह सकते है की गोस्वामी महाराज पूजनीय है बंदनीय है उनके लिये लोगो के हृदय में आपर श्रद्धा है | पर सच यह है की जो उन्होंने दिया उसके बदले में ये सब कुछ नहीं मेरे हिसाब से उनको कुछ भी दिया ही नहीं जा सकता |
मुझे तो बड़ा आश्चर्य लगता है की ये बाते जो मानस में है अद्वितीय है इसे कैसे महराज जी ने दिया | हालाकि यह भी सत्य है की यह सब भगवत कृपा से हुआ है जितना यह सत्य है उतना यह भी सत्य है की यह सारी बाते उनके ही अंतःकरण से प्रस्फुटित हुयी किन भाव दशा में वे इसका वर्णन किये होगे | यह सच में किसी आश्चर्य से कम नहीं मित्रो कभी कभी मुझे लगता है की अगर संसार में कवि न हो तो क्या होगा |
यह सच है की दुनिया बिरान हो जायेगी | इस दुनिया से श्रृगार ख़त्म हो जायेगा हलाकि कवि का स्वभाव है मानव समाज के विभिन्न पहलुओ को उकेरना या सजाना सवारना या यह उद्दघोष करना की किसी व्यक्ति वस्तु की किस दशा में क्या भाव होता है यह ऐहसास कविओ के माध्यम से ही मिलता है की पानी क्या कहता है ,देश क्या कहता है देश की आकांक्षा क्या है इसकी गरिमा क्या होनी चाहिए |
ये सब चीजे कवि ही अपने भावो द्वारा प्रस्तुत करता है लेकिन सच ये भी है की ये विचार या भाव अपने अपने धरातल पर ठीक बैठता है | जब कवि पानी के बारे कहता है तो वह कवि व्यक्ति न होकर पानी बन जाता है देश का हृदय भी कही हो जाता है | ये सब महज एक बात ही नहीं बल्कि सत्य की कसौटी पर भी सत्य होता है कोई कितना ही इसे झुठला दे | एक रचनाकार होने के नाते मै यह कह सकता हूँ कि " एक कवि का जीवन शायद उसकी खुद की जीवन न होकर सम्पूर्ण संसार का जीवन होता है " उसका जीवन बृहद होता है तभी तो वह संसार के पीड़ा को दीखता है साथ ही साथ उसी संसार से रस की अनूभूति करा पता है ,कही क्लेश ,कही प्रेम ,कही कवि की खुद की बात ,कही पर देश की आवाज ,कही पर देश की शान आदि रूपों में कवि ही प्रतीत होता है , जो अपने आप में विराट होने का संकेत है |
सम्भवतः यह कहना ठीक ही होगा कि कवि का जीवन आमतौर के व्यक्ति से भिन्न होता है श्रेष्ट होता है ,क्यूकि मेरा यह मानना है की संसार में सारे काम ऐसा नहीं की सिखाये जाने पर न किया जा सके पर यही एक ऐसा काम है जो सिखाने पर भी कोई सीख ले यह सम्भव नहीं अगर जबरजस्ती किया भी गया तो वह बेजान सी जान पड़ती है उसमे रंगत न होगी ,उसमे रस न होगे अर्थात कोई चाहकर दिनकर नहीं हो सकता मैथली शरण गुप्त न होगा, राम चन्द्र शुक्ल न होगा, भारतेन्दु न होगा, आदि | होने को तो सच में संसार में सब अद्वितीय है किसी के तरह कोई न होगा पर कवि के विधा में इनके जैसा कोई न होगा |
उनकी रचनायो में जो धार है ,प्यार है , श्रृगार है ,फटकार है ये चीजे जबरजस्ती किसी कवि के द्वारा नहीं हो सकता शायद वह इसलिए की प्रकृति उनको एक रचनाकार के रूप न चुना हो | अब मै आयेदिन देखता हूँ पेपर में पढने के बाद मुझे पता चलता है की यह उक्त पक्ति गद्यांश नहीं पद्यांश है ,किसी कवि ने लिखा है | मुझे तो जरा सा समझ नहीं होता की अब के समय में ये हो क्या रहा है कविता पढ़कर ऐसा लगता है मानो अब तक मै गद्यांश पढ़ रहा था जब तक की कही पुष्टि न हो जाये ये गद्यांश नहीं पद्यांश है | एक कवि के बारे में मै जहाँ तक समझता हूँ जहाँ तक मै समझ सकता हूँ की सच में एक कवि आदरणीय है, बंदनीय है ,पूजनीय है |
एक सच्चा कवि
1 रब के बनाई इस दुनियां में कोई एक बेख़ौफ़ सोता
खुद से बाते करता अपने ही हर जगह होता
ना खुद की परवाह करता ना किसी से रुसवा करता
आकाश को घड़े में सहज भर दे ऐसा एक सच्चा कवि ही होता |
2 जीवन को खूबसूरत रंगों से भर देता
किसी और का कोई ऐहसान न लेता
है क्या उसकी रजा ,है क्या उसकी मजा
अपने भावो से मानवता का त्रास हर लेता |
3 जीवन के मर्मो का उसे भी भान होता है
मनोरंजन ही नहीं उसके द्वारा मानवता का उत्थान होता है
शदियां संजोये खुद को आइना दिखाये
एक कवि दरियां में मांझी के लिये पतवार होता है |
4 कभी हँसता कभी रोता कभी बहारो पर जा निसार करता
फूल ही नहीं वह कांटो से बेहद प्यार करता
मुफलत में नहीं मिलती ऐसी जीवन उसको भी भान होता
सोने वाले जग जाये ऐसा वह प्रचण्ड हुंकार भरता |
5 कवि कवि ही होता अंततः वह विचरो में खोता
ना उसके लिये शरहदे ना ही वह किसी का गुलाम होता
खुद के दुनियाँ का मालिक होता ना ही कभी बेहोश होता
उसके फूल उसके चमन उसके ही नजरो में बहार होता |

Bahut badhiya lage raho..... keep it up...
जवाब देंहटाएंधन्यबाद sir
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